Sunday 16 June 2019

कहो कि पात से झरने लगे हैं बस यूँ ही!


इस सावन में भी मुझे निखरना न आया!

अब तो बस यूँ समझ लीजिए कि मैं केवल और केवल बिखरना चाहता हूँ.

किन्तु!

मेरे बिखरने में कोई पश्चाताप नहीं.
"कुमार गिरि" के तईं!

मैं तो बिखराव का ऐसा कल्पद्रुम हो जाना चाहता हूँ जहाँ हो कल्पना लोक की ही सही, किन्तु 'अनिन्द्य' 'आद्योपान्त' जीवनमूर्ति.. "चित्रलेखा".

किन्तु मैं "कुमार गिरि" तो नहीं.

क्योंकि "कुमारगिरियों" हेतु तो रची गयीं हैं, जाने कितनी बार..... अनेकों "चित्रलेखाएँ"!

और मैं तो "बीजगुप्त" भी नहीं.

क्योंकि राजन्यों सा न मेरा 'कद' है, और न 'पद'!

हाँ..भोगी अवश्य हूँ.

किन्तु तब भी हूँ मैं... "चित्रलेखा" का अनुगामी.

अपने जीवन पथ में!

बहुधा सोचता हूँ मैं.
क्या होता यदि होती कहीं, मुझ 'अकिञ्चन' हेतु कोई "चित्रा".

हाँ, मैं उसे "चित्रा" ही कहता स्यात्.

और क्या तब हो जाता मेरा जीवन "सार्थक"!

क्योंकि "चित्रलेखाएँ" तो हुआ ही करती हैं, मात्र जीवन कल्याण हेतु, "कुमारगिरियो" के!

सैकड़ों, हजारों बार, सैकड़ों हजारों की भीड़ से अलग.

जो हुआ करतीं हैं...,

"प्रतीक्षा" नहीं "प्रेरणा".

"परित्यक्ता" नहीं, "प्रियतमा".

और बन जाया करती हैं!

"पुष्प" नहीं "लताएँ".

"राग" नहीं "रागिनियाँ".

उनमें बसता है.

"स्वर" नहीं "मौन".

उनमे न तरुणाई की उत्कण्ठा है, न यौवन का उद्वेग!

यदि कुछ है, तो मानों एक पारिजात-वृक्ष!

जिसकी शाखें लहरती हैं, अपनी पूरी "गरिमा" से.

हर "कुमार गिरि" के  हेतु

"अमरत्व" की "परिणति" में....!

और जो कहा करती हैं कि...

'संसार में पाप कुछ भी नहीं, वह केवल मनुष्य के दृष्टिकोण की विषमता का दूसरा नाम है।'

अस्तु.

छोटा सा दु:ख!

भीड़ से कही बात
हाथों हाथ उठाई जाती है!
सावधान रहिएगा
ये भीड़ हँकवायी जाती है!!

शब्द-शब्द, अक्षर-अक्षर
निखरा सा परोसना है!
आज कम से कम हमें,
हजार तक पहुँचना है!!

हृदयोद्गार, कम से कम
भीड़ से बात, कम से कम!
सर्वज्ञाता हो, भीड़ से पूछता है
मर्मज्ञ है, पर पैंट में मूतता है!!

जीवन बिताने की,
ये भी एक विधि है!
आलमारियाँ, किताबें
सब जीवन निधि है!!

आज हमें एकदम,
ये बात याद आती है!
बचपन में सुनते थे,
"कढ़ना" ही थाती है!!

पढ़ी लिखी दुलहिन,
दुनिया को चराती है!
गृह विज्ञान की,
कक्षा चलाती है!!

ब्याह हुआ सास जी ने,
दूध उबलवाया था!
सारा दूध बरतन से
बाहर चला आया था!!

सारा ज्ञान दुलहिन का
सौ टका सही था!
पर किसी किताब में
यह वर्णन नहीं था!!

ज्ञान की पुतरिया,
ये काम कर दीजै!
दूध उबल जाए तो,
आँच मद्धम कर लीजै !!

जलेबियाँ ठण्ढी थीं!

भई देखो!

प्रिय तो तुम हो नहीं सकते, सो वह सम्बोधन नहीं।

विमर्श करने की तुम्हारी औकात नहीं, क्योंकि...!

रहिमन ओछे नरन ते, तजो बैर अरु प्रीत।
काटे चाटे श्वान के, दूहूँ भाँति विपरीत।।

ज्ञान जब सीमा से परे होता है तो वह नास्तिकता को जन्म देता है।

अन्धकार भी स्वयँ में सम्पूर्ण होता है, एक लघु दीप किन्तु हर लेता है...उसका सम्पूर्ण साम्राज्य!

और परिभाषाओं का क्या? विवेचनाएं किस हेतु? यहाँ अहँ ब्रह्मास्मि वाले भी गङ्गाजल ढकोरते पाए गए हैं प्रभो!

तर्क-वितर्क, वाद-विवाद, शास्त्रार्थ... इनका प्रयोजन क्या है?

ईंटा धऽ के ऊँच होखऽल?

श्रेष्ठताबोध ही न!

किन्तु हे लम्पटाधीश! हम न मानें तर्क तिहारे। उखाड़ लो जो उखाड़ सको!

शब्दों का दुरुपयोग करने से कौन रोक पाया है किसी को?

अच्छी बातें वो भी कर सकते हैं जिनके चित्त मलिन हों।

सुनो दिल्ली... साहित्य का सूरज अब इन्दौर से ही निकलेगा!

हा हा हा... मैं हूँ दम्भराक्षस!

अत: स्वयँ के अहँ की तुष्टि करो गर्दभराज!

राम पर आक्षेप तुम्हारे लगाए लग जाएगा? किस भ्रम हो सर्वज्ञ?

चूतियापा और चूतिए, दोनों शाश्वत है...आज तुम हो, कल कोई और था, परसों कोई और होगा!

समय साक्षी है!

कोढ़िया के डेरवावन...हटि जा ना तऽ थूकि देब!

जा भाग मिल्खा भाग....मेडल कोई और न पा जाए।

हे सर्वज्ञ...!
राम नाम मणि दीप धरु, जीह देहरी द्वार।
तुलसी भीतर बाहिरेहु, जौ चाहसि उजियार।।

किन्तु!

जदपि कहि कपि अति हित बानी। भगति बिबेक बिरति नय सानी।।
बोला बिहसि महा अभिमानी। मिला हमहि कपि गुर बड़ ग्यानी।।
मृत्यु निकट आई खल तोही। लागेसि अधम सिखावन मोही।।
उलटा होइहि कह हनुमाना। मतिभ्रम तोर प्रगट मैं जाना।।

इति नमस्कारान्ते।

गाना बदल रहे थे!

मैं एक गाने के बोल बदलना चाहता था, मूल वालों से अग्रिम क्षमा याचना। और हाँ.....हम प्रगतिशील हो रया ऊं!

आइए गाना सुनें...!

√•√••~`π✓√•√•~`|~~√

चलो एक बार फिर से, हमबिस्तर हो जाएँ हम दोनों!

मैं क्यों बेगम़ से अब, उम्मीद रखूँ कुछ वफाई का,
लो तुम मेरी तरफ देखो, हवस की भूखी नजरों से!
क्यों मेरे दिल की धड़कन, खार खाए उसके आशिक से,
जब जाहिर हो हमारी ऊह आह का राज बरसों से!!
चलो.....!
************
जो बेगम बोझ बन जाए, तो उसको टोकना गन्दा
जो मेरा टेस्ट कर दे चेंज, उसको ढूंढना अच्छा!
वो अफसाना जिसे, अन्जाम तक लाना न था मुमकिन
उसे मी_लोड के आदेश पर, अब ठोंकना🤔अच्छा!!
चलो.....!

🙈🙉🙊
फुटनोट: गाना केवल गुनगुनाने के लिए है......मी_लोड के आदेश का पालन अपने अपने गृह मन्त्रालय की सहमति से करें!

कभी आपका, कभी काफ्का!

विवाह को सँस्थानिक वेश्यावृत्ति कहने वाले महाज्ञानियों को समर्पित।
***

कभी ये आपका और कभी, काफ्का का खाते हैं
बड़े खुर्राट ज्ञानी हैं, अकल पिछवाड़े से लाते हैं।

सनक ऐसी कि कर दें ख़ाक, जो इनकी हुकूमत हो
वहम ऐसा कि ये दुनिया, अभी ये ही चलाते हैं।

चुनांचे एक लम्हा, खुद की बेगम तक नहीं छोड़ें
कहेंगे आधुनिक हैं, दोस्तों को भी खिलाते हैं।

बड़ा जाहिल है, सोता ही नहीं है बाप के बिन तू
हमें ही देख, हम तो बाप को संघी बताते हैं।

उछलकर चढ़ गया गप से, बता तू माँ की गोदी में
हमारे घर तो माँ को बाप की, कट्टो बताते हैं।

रहें क्यूँ गोटियाँ नीचे, इन्हें ये भी शिकायत है
सो उसकी जद़ बढ़ाने को, ये थैरेपी कराते हैं।

Saturday 15 June 2019

उत्तर-दक्खिन

एक अति प्रसिद्ध ग़ज़ल की कुछ पङ्क्तियाँ....!

बच्चों के सूने हाथों में चाँद सितारे रहने दो
दो चार किताबें पढ़ कर ही ये हम जैसे हो जाएँगे!

अधिक पढ़ लिख कर क्या हो जब कही गई किसी बात को समझने की चेष्टा ही न की जाए? कुछ किताबी ज्ञानियों को ढूँढ सकें तो ढूंढिए, सुना है..हिन्दुत्व की चूलें हिलाने वाले आपके भी आसपास ही हैं।

क्या कहा? जानते हैं? तो ये तो और भी अच्छी बात है।

आइए एक कहानी सुनाता हूँ... सत्य भी है, मिथ्या भी! सार ग्रहण करें...थोथा उड़ा दें, कैसी चिन्ता।

सुबह सवेरे घर से निकला। यूँ ही टहलते टहलते पुल के उस पार तक जा पहुंचा। देखता हूँ, मजमा आज भी लगा हुआ है।

वह एक मदारी था। जैसा कि प्राय: मदारियों की वेशभूषा हुआ करती है वह भी वैसा ही था। साँप की पिटारी, बीन, बाँसुरी, डमरू, स्टील की थालियाँ, लोहे के रिंग, बड़ा सा झोला आदि आदि।

वह रोज उस चौक पर मजमा लगाता। जब सुबह सात की ट्रेन स्टेशन पहुँचती, उसके मजमे की भीड़ बेतहाशा बढ़ जाती। न जाने कहां-कहां से लोग उस सात बजे की ट्रेन से उतरते। उतरने वालों में से कुछ कहीं जाते, कुछ कहीं। फिर भी उसके मजमे तक सौ सवा सौ लोग पहुँच ही जाते।

साँप के नाचने से प्रारम्भ होकर मजमा आगे बढ़ने लगता। बीन बजाता वह जोर जोर से तालियाँ बजाने हेतु भीड़ से आवाहन करता जाता। भीड़ को मजा आए और तालियाँ न बजे, ऐसा कब होता है। सो भीड़ उसके आवाहन पर तालियों की गड़गड़ाहट देती और उन्हीं तालियों की गड़गड़ाहट के बीच उसकी बीन से आवाज़ निकलनी बन्द हो जाती। ऐसा रोज होता मगर क्यों?

वह अपनी पूरी शक्ति से बीन में फूँक मारता। होठों से हटा उसे साफ करने का यत्न करता। उपस्थित भीड़ की ओर नजरें फिराता, फिर फूँक मारता। किन्तु बीन नहीं बजती तो नहीं बजती। उसकी आँखें उदास हो जातीं। भीड़ से शान्ति की अपील करता वह अचानक चैतन्य हो होठों होठों में कुछ बुदबुदाने लगता। फिर अचानक से खूँखार आवाज में चीखता...कौन है? सामने आओ! इस तरह पीठ पीछे वार करता है? एक बाप का है तो सामने आ! विद्या का दुरुपयोग गरीब के पेट पर लात मारने के लिए करता है? मर्द की तरह सामने आ। उल्टा हवा में न लटका दिया तो मजमा लगाना छोड़ दूँगा। खाया पिया सब बाहर कर कपड़ों में आग लगा दूँगा। तू सामने तो आ!

और फिर भीड़ सन्न रह जाती! वो समझ न पाती कि ये सब क्या है। अच्छा भला तो खेल चल रहा था, अचानक हो क्या गया? भीड की फुसफुसाहटें प्रारम्भ होतीं और फिर भीड़ को धकियाता एक व्यक्ति अचानक सामने आता और .........!

(क्रमशः)

मिलन...दो वस्ताजों का!

आज वस्ताज चक्कू रामपुरी 'अहिंसक' से वस्ताज बोटी-बोटी गोरखपुरी 'शाकाहारी' की मूक्कालात भै गयी!
कसम टिप्पणी करने वालों की....जो मैफिल जमी की 'अदा' उमराव जान डुमराँव तक पेदल पेदल ही निकल गीं।

इस अजीमोश्शान राब्ते का 'कुफ्त' आपो उठाएँ...जीवन में परेशानी ही परेशानी होगी...हिंसाअल्ला...कमीन!

पहली जुबां वस्ताज चक्कू रामपुरी'अहिंसक' की है...जिसका जवाबी क़ाफिया व मतला वस्ताज बोटी-बोटी गोरखपुरी 'शाकाहारी' की 'पेचिशशुदा' तकरीरों में वर्ल्ड लेवल पै नुमायाँ होते हुए भी 'डी डी डायरेक्ट प्लस' पर तक ब्लैकलिस्टेड भै गयी थीं!

छड़ो जनाबे आली...आप तो पिलीज... अपना तवा गरमाएँ...फुसफुसानल्ला!

मतला और शेर दोनो वस्ताजों की औकातानुसार एडजस्ट करते जाएँ...सवारी अपनी डंडा डोली की जिम्मेवार पड़ोसी को डाल दे....लौ* से...की फरक पैंदा!

अच्छा...कर्ज लिया था कि...!

हम थे जिनके सहारे
उन्ने जूते उतारे...
और सर पे दे मारे
क्या करें हम बिचारे
हम थे जिनके सहारे...!
(वस्ताज चक्कू रामपुरी 'अहिंसक')

तुम थे जिनके सहारे
चूतिए थे वो सारे...
'सर' को मारा तो ज़ालिम
तुम्हें खिसकना तो था प्यारे!
तुम थे.....!
(वस्ताज बोटी-बोटी गोरखपुरी 'शाकाहारी' का जवाबी सियार!)

दर्द किससे कहें हम
दर्द कैसे सहें हम
दर्द में क्यों रहें हम
दर्द से कौन उबारे... !
(वस्ताज चक्कू रामपुरी'अहिंसक' की हिकमत)

दर्द तुमने कहा क्यूँ
दर्द तुमने सहा क्यूँ
दर्द में तुम रहे क्यूँ
जब 'डाईक्लोफिनेक' था प्यारे!
तुम थे जिनके....!
(वस्ताज बोटी-बोटी गोरखपुरी'शाकाहारी ' की ‌लल्लोचप्पो! )

हम थे जिनके सहारे...
उन्ने जूते उतारे...
और सर पे दे मारे
क्या करें हम बिचारे
हम थे जिनके सहारे...!
(वस्ताज चक्कू रामपुरी'अहिंसक' की दुबारा की गयी हिकमत)

तुम थे जिनके सहारे
चूतिए थे वो सारे...
'सर' को मारा तो बुरबक
खिसकना बेस्ट था प्यारे!
तुम थे.....!
( वस्ताज बोटी-बोटी गोरखपुरी 'शाकाहारी' का जवाबी सियार जलाल में )

अब लाइक कमेन्ट कर के क्या 'सेलिब्रिटी' बना द्योगे हमें?

(वस्ताज़ चक्कू रामपुरी 'अहिंसक' जी...हमायी भटकती आतमा की मुँहमाँगी छमा तुमाए चरणन में, बकस देना हमें.. गोदरेज का! )

सभ्यताओं!

अरी ओ बहरी सभ्यताओं!
सुनो...!
कवित्त नहीं है
यह चीत्कार है
किसी अपने की
किसी अपने हेतु पुकार है!

तनिक आओ तो
देखो तो सही
कैसे हमारी छाती पर
हुक्कामों के पाँव हैं
मानो वो समझ गए हैं
हम टूटी हुई नाव हैं!

अरे बताओ तो
तुम्हें कौन सी क्रान्ति चाहिए
उठ कर खड़े होने को!
जब तुम्हें दो आँसू भी नहीं
हम अभागों पर रोने को!!

हम लड़ रहे हैं
हारा हुआ समर
जूझ रहे हैं,
इधर,उधर!

भला क्यों...किसके लिए?
ओ बहरी सभ्यताओं!!

पहिला अनइस के!

चलो

गाल बजाते हैं!

हाकिमों, हुक्कामों को

मजा चखाते हैं!

कागज काले कर

जय विजय चिल्लाते हैं!

कूप मण्डूकों को

समन्दर पहुँचाते हैं!

बुरकानशीनों से

मोमबत्ती जलवाते हैं!

यूँ ही तो नहीं

ये सारे मारे जाते हैं!

इनकी मरम्मत को

पैसे बहुत आते हैं!!

कोई निरपराध को मारे!

कैसा हठ है...!

सुन सकोगे तुम
मेरे मौन को?
अन्तःस्थल में जो
चुप श्वास लिया करती है?

अतीत के ये झञ्झावात
केवल तुम्हें नहीं व्याप्त!
पथरीली चट्टानों पर भी
बूँदें गिरा करती हैं!!

स्याह से स्निग्ध की
यह यात्रा ही जीवन है!
स्वयँ से कही बातें
वे आत्माएँ सुना करती हैं!!

आयु आधी अधूरी
पर गाँठ में पूरी!
जो कारी कमरिया में
हीरे जड़ा करती है!!

छोड़ दो यहाँ एक
दीर्घ निःश्वास!
किसी से क्या कहना
मृत्यु सब कहा करती है!!

१५० का मटीरियल

मोहनदासी
सौ सौ फाँसी
टका टका गिन!
***
परम वैष्णव
थोथा कलरव
चरखा टिनटिन!
***
सुनो अभागे
अल्ला राखे
चार मलेछिन!
***
दे हरकारा
वही दुलारा
बाकी भिनभिन!

Sunday 2 June 2019

मज़हब के करम!

इक नन्हीं मुन्नी सी परी
आँखें उसकी जादू भरी!
भोर भये ही उठ जाती है,
उठती नहीं अम्मीं उठाती है!!

वक्त से पहले जाग उठी है,
बाँध दामनी आह उठी है!
लट उलझी थी सुलझाती है,
खुद को जानें क्या समझाती है!!

आँखें मल अलसाया बचपन,
वुजू करे कुम्हलाया बचपन!
कैसी पीड़ा है क्या कहिए,
उम्र कहाँ कि सजदे करिए!!

मस्जिद का भोंपू बोला है,
उफ़ उसका बचपन डोला है!
चाँद का टुकड़ा कहने को है,
अभी नमाज़ें पढ़ने को है!!

नन्हीं नन्हीं सी हथेलियाँ,
वहाँ लकीरें या पहेलियाँ!
लोगों से वह जुदा कहाँ है,
पूछा उसनें खुदा कहाँ है!!

भोली सी है सीधी सी है,
अब भी नज़र उनींदी सी है!
अम्मी जबरन मुँह धोती है,
वह बेचारी रो देती है!!

क्या मजहब में बच्चा होना,
गुड्डा गुड़िया हँसना रोना!
अल्ला से पूछेगी जाकर,
क्या पाते हैं उसे जगाकर!!

Saturday 1 June 2019

ईद मुबारक

अबे तुम हिस्सेदार कहाँ, सीधे सरकार हो बे!

सँविधान तुम्हारे हेतु ही तो है। आओ हमारी छाती पर चढ़ मूँग दलों। हम उफ तक नहीं करेंगे। हमारी प्राथमिकता सदा से सेक्युलरिज्म है, गजवा-ए-हिन्द तुम्हारी। हमारी क्या औकात कि तुम्हें किराएदार कहें!

तुमने हमसे पाकिस्तान लिया, हमने कुछ कहा? कश्मीर, केरल, बङ्गाल भी ले लो....हम कुछ नहीं कहेंगे। यावद् जीवेत् मानते हैं हम... वसुधैव कुटुम्बकम् भी!

हमारी हम दो हमारे दो स्कीम में तुमने सेंध लगायी... हमने कुछ कहा? हमारे धन्धों पर बैठे... हमने कुछ कहा?

हमारी सँख्या घटती गयी, तुम्हारी बढ़ती गयी... हमने कुछ कहा?

तुम आज सेकेण्ड लार्जेस्ट हो, यह पीर हमें बेहद दुःख देती है। तुम प्रथम नियन्ता हो जाते तो चित्त को शान्ति मिलती। बताओ कितना सुन्दर दृश्य होता नऽ! तुम एक ओर से आवाज देते अल्ला हो अकबर....हम अपने अपने दड़बों में सिमट कर रह जाते! तुम सड़कों पर तकरीरें करते, हम बिलों में घुस जाते! वाह....सोच कर ही रोमाञ्च हो आता है।

तुम अपने प्रयत्नों में जी जान से लगे रहो! हम इस धरा पर अवतरित ही इस हेतु हुए हैं कि विश्व को अपनी कूप मण्डूकता के प्रत्यक्ष दर्शन करा सकें। हमारी चिन्ता स्वयँ परमात्मा करते हैं। हम किसी के आश्रित नहीं!

चले हऽर ना चले कुदारी...बइठल भोजन देलें मुरारी...यह हमारा घोष वाक्य है!

हमें प्रतीक्षा है उस क्षण की जब तुम हमारा नाम-ओ-निशाँ मिटा दो और हम स्वर्ग पहुँचे अपनी सहिष्णु शिक्षाओं के दम पर!

तुम्हें एक जन्म ही तो मिला है अपने अधूरे कार्य सम्पादित करने को? हमें ८४ लाख योनियों में भ्रमण करना है...हम कहीं न कहीं एडजस्ट कर लेंगे। चिन्ता नक्को! आओ गले लगो...ईद मुबारक कह दें! क्या खबर कल जिन्दगी रहे न रहे!

#ईद_मुबारकओवैसीभाई
#अस्लाम_अलैकुम