भई देखो!
प्रिय तो तुम हो नहीं सकते, सो वह सम्बोधन नहीं।
विमर्श करने की तुम्हारी औकात नहीं, क्योंकि...!
रहिमन ओछे नरन ते, तजो बैर अरु प्रीत।
काटे चाटे श्वान के, दूहूँ भाँति विपरीत।।
ज्ञान जब सीमा से परे होता है तो वह नास्तिकता को जन्म देता है।
अन्धकार भी स्वयँ में सम्पूर्ण होता है, एक लघु दीप किन्तु हर लेता है...उसका सम्पूर्ण साम्राज्य!
और परिभाषाओं का क्या? विवेचनाएं किस हेतु? यहाँ अहँ ब्रह्मास्मि वाले भी गङ्गाजल ढकोरते पाए गए हैं प्रभो!
तर्क-वितर्क, वाद-विवाद, शास्त्रार्थ... इनका प्रयोजन क्या है?
ईंटा धऽ के ऊँच होखऽल?
श्रेष्ठताबोध ही न!
किन्तु हे लम्पटाधीश! हम न मानें तर्क तिहारे। उखाड़ लो जो उखाड़ सको!
शब्दों का दुरुपयोग करने से कौन रोक पाया है किसी को?
अच्छी बातें वो भी कर सकते हैं जिनके चित्त मलिन हों।
सुनो दिल्ली... साहित्य का सूरज अब इन्दौर से ही निकलेगा!
हा हा हा... मैं हूँ दम्भराक्षस!
अत: स्वयँ के अहँ की तुष्टि करो गर्दभराज!
राम पर आक्षेप तुम्हारे लगाए लग जाएगा? किस भ्रम हो सर्वज्ञ?
चूतियापा और चूतिए, दोनों शाश्वत है...आज तुम हो, कल कोई और था, परसों कोई और होगा!
समय साक्षी है!
कोढ़िया के डेरवावन...हटि जा ना तऽ थूकि देब!
जा भाग मिल्खा भाग....मेडल कोई और न पा जाए।
हे सर्वज्ञ...!
राम नाम मणि दीप धरु, जीह देहरी द्वार।
तुलसी भीतर बाहिरेहु, जौ चाहसि उजियार।।
किन्तु!
जदपि कहि कपि अति हित बानी। भगति बिबेक बिरति नय सानी।।
बोला बिहसि महा अभिमानी। मिला हमहि कपि गुर बड़ ग्यानी।।
मृत्यु निकट आई खल तोही। लागेसि अधम सिखावन मोही।।
उलटा होइहि कह हनुमाना। मतिभ्रम तोर प्रगट मैं जाना।।
इति नमस्कारान्ते।
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