इस सावन में भी मुझे निखरना न आया!
अब तो बस यूँ समझ लीजिए कि मैं केवल और केवल बिखरना चाहता हूँ.
किन्तु!
मेरे बिखरने में कोई पश्चाताप नहीं.
"कुमार गिरि" के तईं!
मैं तो बिखराव का ऐसा कल्पद्रुम हो जाना चाहता हूँ जहाँ हो कल्पना लोक की ही सही, किन्तु 'अनिन्द्य' 'आद्योपान्त' जीवनमूर्ति.. "चित्रलेखा".
किन्तु मैं "कुमार गिरि" तो नहीं.
क्योंकि "कुमारगिरियों" हेतु तो रची गयीं हैं, जाने कितनी बार..... अनेकों "चित्रलेखाएँ"!
और मैं तो "बीजगुप्त" भी नहीं.
क्योंकि राजन्यों सा न मेरा 'कद' है, और न 'पद'!
हाँ..भोगी अवश्य हूँ.
किन्तु तब भी हूँ मैं... "चित्रलेखा" का अनुगामी.
अपने जीवन पथ में!
बहुधा सोचता हूँ मैं.
क्या होता यदि होती कहीं, मुझ 'अकिञ्चन' हेतु कोई "चित्रा".
हाँ, मैं उसे "चित्रा" ही कहता स्यात्.
और क्या तब हो जाता मेरा जीवन "सार्थक"!
क्योंकि "चित्रलेखाएँ" तो हुआ ही करती हैं, मात्र जीवन कल्याण हेतु, "कुमारगिरियो" के!
सैकड़ों, हजारों बार, सैकड़ों हजारों की भीड़ से अलग.
जो हुआ करतीं हैं...,
"प्रतीक्षा" नहीं "प्रेरणा".
"परित्यक्ता" नहीं, "प्रियतमा".
और बन जाया करती हैं!
"पुष्प" नहीं "लताएँ".
"राग" नहीं "रागिनियाँ".
उनमें बसता है.
"स्वर" नहीं "मौन".
उनमे न तरुणाई की उत्कण्ठा है, न यौवन का उद्वेग!
यदि कुछ है, तो मानों एक पारिजात-वृक्ष!
जिसकी शाखें लहरती हैं, अपनी पूरी "गरिमा" से.
हर "कुमार गिरि" के हेतु
"अमरत्व" की "परिणति" में....!
और जो कहा करती हैं कि...
'संसार में पाप कुछ भी नहीं, वह केवल मनुष्य के दृष्टिकोण की विषमता का दूसरा नाम है।'
अस्तु.
No comments:
Post a Comment