Wednesday 21 August 2019

जहाँ उर्दू-दाँ!

Deepti Patel सादर अभिवादन...!

किसी अन्य भाषा का ज्ञान होना त्याज्य नहीं, पतन का कारण भी तब तक नहीं जब तक व्यक्ति उसे आचरण में लाना प्रारम्भ नहीं कर देता। वास्तव में पतन वहाँ से प्रारम्भ होता है जब व्यक्ति किसी द्वितीयक कारक के समक्ष प्रथम को तजने लगे! उसकी अवहेलना करने लगे। निवेदन करुँगा कि हम वह दृष्टि विकसित करें जहाँ से उर्दूकरण का आखेट होते समाज का पतन स्पष्ट दिखे। प्रथम किसी शनै: शनै: उर्दूदाँ होते व्यक्ति को ढूँढे‌। उसके आचरण में होता परिवर्तन स्पष्ट दृष्टिगोचर होगा। भाषा व्यक्तित्व विकास का माध्यम है यह तो मानती ही होंगी?

उर्दूकरण होता क्या है यह एक विस्तृत विषय है। सँक्षेप में यह समझें कि किसी व्यक्ति या सँस्था को धूल धूसरित करने के प्रावधान क्या हो सकते हैं? उसकी जड़ें काट देना! जहाँ से सँबल प्राप्त हो वह धुरी नष्ट कर देना! क्या ऐसा नहीं?

इसके हेतु मैं आपको एक पुराने लेख का हिन्दी अनुवाद देना चाहूँगा। लेख मेरा नहीं...भाषान्तर मात्र है! आग्रह है कि इसे प्रस्तावना सहित पढ़ें व समझें। सादर 🙏

( सनातन कालयात्री का उद्घोष )

कभी किसी ने पूछा था - संस्कृत क्यों? कोई पूछ रहा है - पालि क्यों? बुद्ध क्यों?
मैं उस क्षेत्र का हूँ जहाँ कभी भृगु पुत्र विचरते थे, जहां कभी भारत का सबसे अधिक विख्यात पुत्र पालि प्राकृत में जनसंवाद करता घूमता था।
मुझे भोजपुरी में वैदिक अपभ्रंश सुनाई देते हैं, 'पालि' भाषाओं और संस्कृत के बीच की 'संस्कृत' कड़ी लगती है।

मेरे भीतर मेरे पुरखे अभी जीवित हैं, मैं प्रतिदिन प्रात:काल अपने दिवंगत पिता को आज भी स्तोत्र गाते सुनता हूँ।  मैं अपनी संतान को उन श्लोकों का उच्चारण करवाता हूँ।  मैं कटा नहीं जुड़ा हुआ हूँ और भविष्य देख रोता हूँ किन्तु मुझे रोते हुये नहीं, इस संतोष के साथ मरना है कि मैंने वह सब किया जो कर सकता था, अपनी ढेरो सीमाओं के साथ छटपटाते हुये भी मैं जिया, अपनी अर्थी नहीं ढोई।

(... 'आतिश तसीर' के लिखे इस अङ्ग्रेज़ी अंश का कोई अनुवाद कर दो। मुझे अपने कथित खण्डहरों पर मुंह तोप लजाना नहीं आता! मैं सहस्राब्दियों में बहता भारत हूँ, मैं सनातन कालयात्री हूँ। )

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मैं बीसवीं सदी के भारत में युवा हुआ। एक ऐसे परिवेश में जो अपनी जड़ों से पूर्णतया कटा हुआ था। मैं इस शब्द का प्रयोग अपने मन-मस्तिष्क में यह मान्यता रखते हुए कर रहा हूँ कि 'रेसिन' का अर्थ फ्रेंच में 'रूट' अर्थात् 'जड़' होता है और वास्तविकता में भी यही वह अवस्था होती है जैसे कि हम तब थे। 'डीरेसिनेटेड' अपनी जड़ों से पूर्णत: कटे हुए।

हम ऐसे लोग थे...जिनकी जड़ें या तो तोड़ दी गयी हों अथवा प्रयास करने पर भी जो अपनी जड़ों तक नहीं पहुंच सकते थे! एक साँस्कृतिक व भाषिक गतिरोध सा था, मेरे माता-पिता व मेरे दादा-दादी की पीढ़ी के मध्य ! उन दोनों ही स्थानों पर अङ्ग्रेजी भाषा के रूप में गतिरोध की एक परत सी बिछी हुई थी जो वहाँ पाकिस्तान में मेरे पिता व भारत में मेरी माँ को अपनी जड़ों तक पहुंचने से रोके हुए थी।

"वह ऐसी कौन सी वस्तु या अवस्था थी, जिसे सुप्रसिद्ध श्रीलङ्काई कला समीक्षक 'आनन्द केन्टिश कुमारस्वामी' ने अपने निकटवर्ती समय में घटते कालक्रम में पूर्व में ही समझ लिया था? (एवं मैं भी इसे ऐसा ही समझता हूँ जो आज पूरे भारतवर्ष में चहुंओर हो रहा है।)

विश्वास करना कितना कठिन है?
कुमारस्वामी 'द डान्स आफ शिवा' में वर्णन करते हैं...भारतीय मानसिकता की निरन्तरता को किस भाँति विकृत कर दिया गया? एकमात्र अङ्ग्रेजी शिक्षण द्वारा किस प्रकार एक पूरी पीढ़ी को परम्परा के धागों से विलग करने का प्रपञ्च रचा गया एवँ वह निकष विकसित किया गया जो अपनी जड़ों की ओर लौटते, आकर्षित होते व्यक्ति को सतही व पिछड़ी मानसिकता का घोषित कर दे रहा था!

संक्षेप में कहें तो अङ्ग्रेजी भाषा के सहयोग से एक ऐसे बौद्धिक म्लेच्छ की रचना की गयी जो वास्तविकता में न तो पश्चिमी परिभाषाओं से ही पूर्णरूपेण सम्बन्धित था, और न तो पूरब ही जिसके अन्त:स्थल में दूर दूर तक कहीं विद्यमान था!

सटीक अर्थों में यह वही विवरण है जैसे हम थे, और मेरे हेतु इसका अर्थ क्या था? व्यक्तिगत रूप से? 'एक भारतीय लेखक, जिसने भारत में लेखन का व्यवसाय बस प्रारम्भ ही किया था किन्तु उसके हेतु भारतवर्ष के गौरवशाली, समृद्ध अतीत के सभी द्वार बन्द से थे!'

सँस्कृत भाषी मल्लिनाथ, जो चौदहवीं शताब्दी के आन्ध्र विषयक शोधकार्य करते हैं, वे 'इति दण्डी' नामक ग्रन्थ के साथ भी अत्यन्त सहज हैं व सात आठ सौ वर्ष पीछे के साहित्यिक परास तक पहुंचने की क्षमता भी रखते हैं। मेरी परास मात्र पूर्ववर्ती पचास साठ वर्षों तक ही है। मेरे पूर्ववर्ती वे लेखक जिन्होंने उन्हीं स्थानों पर रहते हुए लेखन कार्य किए जहाँ मैं वर्तमान में हूँ उन्हें भी समझने की मेरी सीमित क्षमता वश, उनके सभी लेखों व कार्यों के उद्घाटन से मैं अनभिज्ञ ही रहा।

सौन्दर्य सम्बन्धी उनके विचार, उनकी प्राकृतिक विश्व विषयक अनुभूतियाँ, एक लेखक होने की उनकी वञ्चनाएँ, साहित्य क्या है आदि आदि... इन समस्त आयामों सम्बन्धी उनके कथन मेरे हृदयतल पर अङ्कित हैं, और मैं इन पर विस्तार से बाद में कहूँगा, संक्षेप में यह कि मेरे हेतु ऐसी स्थिति एकमात्र भाषिक कारणों से ही नहीं थी, और भी घटक थे जिन्हें समझना आवश्यक है।

अब, जबकि मैं यह सब लिख रहा हूँ तो मेरे मन मस्तिष्क में उभरते हैं टी एस इलियट! मैं एक ऐसा लेखक हूँ, जिसे इतिहास का कोई बोध नहीं। वहीं इलियट, जो न केवल परम्परागत रूप से, अपितु स्वयँ की व्यक्तिगत मेधा से भी सम्पन्न थे, इतिहास बोध को कुछ यूँ परिभाषित करते हैं:- इतिहास बोध एक धारणा है, प्राचीनता के न केवल प्राचीनतम होने की, अपितु उसके वर्तमान में भी श्रेष्ठतम् अनुभव करने की!

इतिहास बोध के सम्बन्ध में वह ऐसा अनुभव करते हैं कि लिखने वाला उसे न केवल अपनी पीढ़ी की रगों में बहना सुनिश्चित करता है, अपितु (स्व-कथनानुसार) वह यह परिभाषित भी करते हैं.. कि होमर से लेकर उनके स्वयँ के देश तक, समग्र यूरोप के सम्पूर्ण साहित्य का अस्तित्व इसी तथ्य के समकक्ष स्थित है।

मेरी समस्या यह थी कि मेरी रगों में ऐसा कोई कारक उपस्थित न था। अँग्रेजी के कुछ उपन्यासों, भारत विषयक कुछ आङग्ल भाषा के लेखन व उर्दू की कुछ शेर-ओ-शायरी से इतर मेरे पास कुछ नहीं था! मेरी पूँजी केवल यही थी और वह भी अत्यल्प मात्रा में! इसी कारण मेरी शिराएँ (पृष्ठभूमि) तो अपेक्षाकृत अत्यधिक जीर्ण व दयनीय अवस्था में थी। कोई भी मार्ग ऐसा न था जो मेरी दृष्टि में इस विश्व को एक सूत्र में बंधा दर्शा सके।

जहाँ मैं युवा हुआ, वह स्थान साँस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में न केवल नकार दिया गया था वरन् हमसे यह आशा भी की गयी थी कि हम केवल उन्हीं तथ्यों को महत्व दें जिसके आकलन के साधन हमारी वर्तमान परिस्थितियों के सापेक्ष हों। वहाँ प्रतिकूलता हमारे हित में नहीं थी व हमारे द्वारा ऐसा करना अतीत में हुए घटनाक्रम की अवमानना भी मानी जाती।

उर्दू भाषियों को वहाँ सम्मान प्रदान किया गया। हालाँकि उर्दू सीखने हेतु कोई विशेष कष्ट या बाध्यता नहीं दिखाई गयी किन्तु सँस्कृत को स्पष्टतया उपहास योग्य माना गया एवँ तिरस्कृत किया गया। वह भी कुछ इस भाँति कि इस भाषा की अधिकांश ध्वनियाँ विकृत हो कर नष्ट हो जाएँ! उदाहरण हेतु...वहाँ लोग ऐसे नाम रखने से बचने लगे जो सँस्कृतनिष्ठ थे, और जो उन्हें अन्यों की अपेक्षा कहीं निम्नवर्गीय सा घोषित न कर दें, यथा 'नरेन्द्र'! कहीं कोई भी आपका नाम 'नरेन्द्र' जान यह न कह बैठे कि छि:... यह नाम तो किसी वाहन चालक (ड्राइवर) के जैसा लगता है! अतः वे 'अरमान', 'जायरा', 'अलाया' इत्यादि नामों को वरीयता देने लगे । अधिकांश उच्च श्रेणी के विद्यालयों में सँस्कृत शिक्षक उपहास के पात्र थे। 'द दून स्कूल' जैसे विद्यालय में भी सँस्कृत की कक्षा छोड़ कर चले आने वाले छात्रों को अत्यधिक प्रसन्नता होती! वे कहते without having learnt any more Sanskrit than a derisive little rhyme about flatulence.

सर्वाधिक आश्चर्यजनक तथ्य यह था कि तत्कालीन विश्व में सँस्कृत को साहित्य की भाषा मानने व जानने वालोें की सँख्या अत्यल्प थी। वस्तुत: सँस्कृत भाषा ने दीर्घ काल तक स्वयँ को मरणासन्न अवस्था से बाहर लाने हेतु ऐतिहासिक संघर्ष किया व साहित्य एवं अनेक प्रान्तों की भाषा होने तक का मार्ग प्रशस्त किया। किन्तु मेरी वय में, जैसा मैंने देखा... पुनः यह भाषा मात्र श्राद्ध आयोजनों तक ही सीमित थी। कोई उच्च वर्ग की महिला यह ज्ञात होने पर की आप सँस्कृत सीख रहे/रही हैं, यह कहने में किञ्चित संकोच नहीं करेगी कि... यार मैं तो इन छन्दों-वन्दों से अत्यधिक घृणा करती हूँ।

सँस्कृत भाषा निम्न स्तरीय हो चुकी थी। यह आपको, हमारे अँग्रेजी भाषी सँसार में अपमान के कड़वे घूंट पिलाने का एक माध्यम बन चुकी थी और इससे मुझे वी एस नायपॉल की कहानी 'बेलीज़ की श्रेष्ठतम् माया सभ्यता के भग्न खण्डहर और वह लड़का' 'उन्हीं भग्नावशेषों की छाया में'.... की स्मृति हो आयी।

नायपॉल 'एनिग्मा ऑफ द अराइवल' में लिखते हैं, वह मायन लड़का (उनके अपने निजी भाव जो भी रहे हों) एक लज्जा भरी सी हँसी हँसा, जब मैंने उससे उस स्मारक के विषय में कुछ बातचीत करने का प्रयत्न किया। उस उपेक्षित हँसी के पश्चात् उसने अपना मुँह ढँक लिया। ऐसा प्रतीत हुआ मानों वह किसी अपमानजनक अवस्था में पहुंचा दिया गया हो। वह उस व्यक्ति की भाँति लगा जो वर्षों पूर्व हुए किसी मूर्खतापूर्ण आचरण हेतु स्वयँ  को क्षमा करने की याचना कर रहा हो!

'...आतिश तासीर' के लिखे एक अँश का हिन्दी अनुवाद।

🙏🙏🙏

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