अरी ओ बहरी सभ्यताओं!
सुनो...!
कवित्त नहीं है
यह चीत्कार है
किसी अपने की
किसी अपने हेतु पुकार है!
तनिक आओ तो
देखो तो सही
कैसे हमारी छाती पर
हुक्कामों के पाँव हैं
मानो वो समझ गए हैं
हम टूटी हुई नाव हैं!
अरे बताओ तो
तुम्हें कौन सी क्रान्ति चाहिए
उठ कर खड़े होने को!
जब तुम्हें दो आँसू भी नहीं
हम अभागों पर रोने को!!
हम लड़ रहे हैं
हारा हुआ समर
जूझ रहे हैं,
इधर,उधर!
भला क्यों...किसके लिए?
ओ बहरी सभ्यताओं!!
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