Tuesday 27 April 2021

चित्रलेख -१

राऽऽऽऽऽम्!
एकाकी?
बन्धु...,
राम कभी एकाकी नहीं होते!

राम के साथ हुआ करते हैं, कोई सौमित्र!
......कोई हनुमान, कोई सुग्रीव।

कौशल्या, कैकैयी, सुमित्रा
कहीं निषाद, कहीं भरत, कहीं शत्रुघ्न!
कोई नल-नील, कोई जाम्बवान, कोई अङ्गद..
एक वशिष्ठ 'वसिष्ठ'!
एक विश्वामित्र, एक दशरथ।

राम के होने के अनेक हेतु हैं!
कहीं जनस्थान, कहीं ताटका, कहीं सुबाहु, कहीं मारीच!
बालि सह घनघोर रवण करता रावण...
राम के चरण पर ही शान्त होगा, किन्तु!

राम के होने न होने में,
सीताओं का होना भी
बड़ा आवश्यक है!
राम को गढ़ते हैं,
एक जनक, एक सुनैना।

प्रान्तर उपत्यकाओं के
वे कोल, भील, वानर, भालू!
वन, उपवन, नदी, पर्वत
कितने अगस्त्य, लोपामुद्राएँ
लङ्का, गिलहरियाँ, अयोध्या!

सब मिलकर रचेंगे वह 'राम'
जो होगा सबका उद्धारकर्ता
और जिसकी न्यायप्रियता
युगों पाऽऽर....सुनी जाएगी, गुनी जाएगी।

जय श्रीराम 🙏



(चित्र सङ्कलन विभिन्न स्रोतों से आभार सहित)

चैत्र पूर्णिमा, मङ्गलवार
भारत-२०७८ विक्रमी


Sunday 7 March 2021

'ऋत की तृषा'

अनन्त की ओज पाना
सहज कहाँ?

कहाँ वह ऋत?
जो चुने विश्वरथ को,
भरत, भृगु, भार्गवों में से!

देव, दस्यु, दानव,
सब उपस्थित!
मैत्रावरुण, दिवोदास
तुत्सुओं, श्रृञ्जयों!

अहो!
तुम रचो ऋचीक
जमदग्नि, जामदग्नेय
घोषाओं, सत्यवतियों
भगवती लोपाओं!

वरुणों, आदित्यों
अग्नि, देवेन्द्रो
उपेन्द्र, पुरुषोत्तमों
मैं निरुपाय, असहाय!

मैं,
कहीं हो न जाऊँ भस्मी-भूत
वामदेव होने तक,
विश्वामित्रों की कृपा-छाया में
भेज क्यों न देती त्रिपुर-सुन्दरी?

आवाहयामि जगदम्बिके
आवाहयामि, आवाहयामि!

Wednesday 2 September 2020

'बकासुर की गोद में'

उन दिनों शिराओं में रक्त नहीं, सेक्युलरिज्म बहता था!

वर्षों पश्चात 'समीर' से मिलना हुआ। मिलना क्या हुआ, बुलाया गया था‌। 'भाभीजी' के साथ तरकारियाँ लेते उसे देखा तो कई बार.....पर न जाने क्यों देखकर भी कभी कुछ कहा नहीं! समय के पाठ कई बार गहरे, और गहरे तक उतरते चले जाते हैं। तोरी-पालक में उलझा मैं उस दिन भी यूँ ही चला जाता यदि.....!

प्रथम आमने-सामने का विवाद! उसके पश्चात तो मोदी, हिन्दू, दलित, मुस्लिम जानें क्या-क्या? कितनी-कितनी बार! अब उधर देखने को भी जी नहीं चाहता।

तरकारियों से होती भेंट अन्तत: भाभीजी को मुझ तक ले ही आई। अरे भैया...आप तो आते ही नहीं अब! कभी आएँ फिर से खाने पर सबके साथ, बहुत दिन हुए! कब आएँगे? आना भी है कि नहीं? मैं अचकचा गया।

जाने क्या सोच समीर को कल फैक्ट्री पर मिलने की कह आया।

अब सोचता हूँ...व्यक्ति उस प्रत्येक स्थान पर उसी समय होता है जहाँ वास्तव में उसे होना चाहिए! समीर की फैक्ट्री के निकट पहुँचा मैं अन्दर चलता चला गया। सब पूर्व निरीक्षित, पर अजीब सी शान्ति थी उस दिन! जैसे...कोई मर गया हो!

मेरे आने की सूचना उसने किसी को दी! कुछ इधर-उधर के पश्चात भोजन की बात पर मैंने जो बार-बार नकारात्मक उत्तर दिया तो वह कुछ खिन्न सा हुआ। अब वह अनुनय भी शेष नहीं जो पूर्व में बहुधा हुआ करता था। समय बाबू मोशाय समय...!अब यह तो २०२० था। अपने हृदय में ही प्रश्नोत्तरी सा करता मैं फोन की पुकार सुन कक्ष से बाहर आ प्राङ्गण में टहलने लगा।

दो लड़के। आश्चर्यजनक बात यह कि दोनों अद्भुत रूपेण कृशकाय! एक चुपचाप उस पतरे को घिसने में व्यस्त था जिसका मनवाञ्छित परिवर्तन काफिरों की लक्ष्मी माता के आगमन की गारण्टी होता है। मैं रुककर उसे देखने लगा था। पतरे वाले को  निहारता, कभी हथेलियाँ लहराता मैं बातें कर ही रहा था कि वह 'दूसरा' जैसे लपक कर मेरे निकट आया। अब वह मेरे ठीक सामने था और...!

उसकी हथेली, दो उंगलियाँ और मेरा गला! अचानक यह क्या हुआ...मुझे जैसे कुछ समझ में ही नहीं आया। जब कुछ क्षणों पश्चात चेतना लौटी तो बोध हुआ, वे दो उंगलियाँ मेरे गले को दो ऐसे स्थानों पर दबा रही थीं कि मेरे कण्ठ से कुछ भी बाहर नहीं आ सकता था। मेरे हाथों ने उससे बचने छूटने के प्रयास में जाने कब प्रतिरोध करना प्रारम्भ किया, यह भी कुछ विशेष स्पष्ट नहीं!

उसका कृशकाय होना मेरे पक्ष में गया अथवा विधि की इच्छा! मेरा प्रतिरोध उस पर भारी पड़ा! उसे नीचे गिरा जब मैंने पीछे की ओर देखा तो 'समीर' को अपने ऑफिस से बाहर झाँकता हुआ पाया जबकि पहला अभी भी चुपचाप पतरा घिसने में व्यस्त था‌! जैसे कहीं कुछ हुआ ही नहीं! मैं भी अब संयत हो चुका था।

सेक्युलरिज्म की 'लाश' ढोता मैं एक बार फिर स्वयँ को समझाता बाहर निकलता गया! बिना किसी से एक शब्द कहे! शीत-बसन्त!

और एक बार पुनः!

'मैं उस सही समय पर, उस सही स्थान पर था!'

Saturday 9 May 2020

युग कथा-१

इन्स्टा, ट्विटर, टिकटाक, यूट्यूब की ओर देख जब फेसबुक को देखता हूँ, तो मुझे ये गोला बड़ा ही विचित्र लगता है!

हैं? सब के सब सन्त? हुकम मान लो इब...जुकरवा कतई कन्फ्यूज ही होगा! हिमालय गया नहीं, कोई मनौती माँगी नहीं, रोजा-नमाज किया नहीं कि या खुदा...पूत दो तो लायक देना, नालायक तो भतेरे हैं! फिर भी यह गति? तीनि में नऽ तेरऽ में?

ऐसा नहीं कि यह गोला सदा से ऐसा ही था। किन्तु कन्याओं के इनबॉक्स में महीने में ९०० बार हाय लिखने वाले भी सर्वप्रथम यहीं पेपच करते पाए गए थे‌। गुड मॉर्निंग, गुड इवनिंग से लेकर चाणक्य तक से ब्रह्माण्ड को इन्होंने ही परिचित करवाया। व्हाट्स एप वाले इस प्रजाति से बाद में त्रस्त हुए। याहू, बिग अड्डा, ऑरकुट, रेडिट, ब्लॉगर, गूगल प्लस आदि तो मर मरा गए मितरों इतने प्रेम पाने की आकांक्षा में ही! ये अलग बात है कि उनमें से कुछ की साँसे अभी भी चल रही हैं‌ चाहें वेन्टिलेटर पर ही सही!

वैसे हम उस समय के साक्षी भी हैं जब ९९९/- का केवल इनकमिंग वैलिडिटी प्लान था! आज के निब्बा निब्बियों का दम तो इसी बात से निकल जाता कि एक मैसेज पैक डलवाने के लिए महीने में कितने दिन बर्गर, गोलगप्पे व मॉल, सिनेमा से दूर रहना पड़ सकता था!

खैर, गर्व इस बात का हो सकता है इस गोले वालों को कि वो चरस जो आज पूरी दुनिया में फैली है, उन सबका रामाधीर सिंह अपना यही फेसबुक है! आइडियाज तो वैसे गूगल ने भी कम नहीं आजमाए, पर जो आग, जो शोखी इस फेसबुक के हुस्न में थी वो कहीं न दिखी! लतखोरी के भी ऐसे ऐसे आयामों तक की यात्रा मनुष्य जाति ने यहाँ की, कि थैनोस व उसकी सेना की हनक और लुच्चई-लम्पटई भी इनके आगे पानी भरे!

किन्तु युग बदला, परिस्थितियाँ बदलीं और बदल गया मनुष्य भी! दण्ड कमण्डल लिए कुछ महापुरुषों ने इस ग्रह को ऐसा शाप दिया कि चैम्पियन्स की सारी बकैती हवा हो गयी। देवर्षि नारद ने रत्नाकर को भी क्या समझाया होगा जो यहाँ के देवर्षियों ने फेसबुकिया समाज को समझाया। सारे रत्नाकर धुँआधार संख्या में वाल्मीकि होने लगे। एक के बाद एक! और यह परिवर्तन भी इतनी शीघ्रता से हुआ कि क्या कहें? धर्म ने मर्म को घट घट छानना प्रारम्भ किया और घोषित पियक्कड़ों की भी कतारें लगती रहीं अमरता की आस में! दो बूंद, ज़िन्दगी की!

किन्तु यह परिवर्तन भी एक सीमा तक ही स्वीकार्य था। जहाँ एक बड़े समूह में सभी नर थे तो वहीं कुछ नराधम अभी भी बचे रह गए! डिटाल वाले एक कीटाणु की भाँति। अब वे कहाँ जाते भला? १०० प्रतिशत तो कुछ भी नहीं ना? खैर खुदा जब हुस्न देता है, नजाकत आ ही जाती है! लगने लगे मजमे! नाचने लगे जमूरे! अलग अलग तान, अलग अलग सुर और अलग अलग मैदान! युद्ध क्षेत्र, कुरुक्षेत्र कहीं पीछे छूट गया! ब्लाकास्त्र नराधमों को नरक में डालने का अचूक अस्त्र बनता चला गया।

(क्रमशः)

Friday 3 January 2020

वो रेख़्ता में सब पर थूक फेंकता अजीमोश्शान शाइर...!

१:- )
"न आज लुत्फ कर इतना कि कल गुजर न सके!
वो रात जो कि तिरे गेसुओं की रात नहीं!!"

मने आज चाँपे रहे तुम अच्छी बात है, पर जब कल तुम्हारे शौहर आ जाएँगे तो हमारा गच्चीजन तो हो नहीं पाएगा! रात अकेली होगी, हम अकेले होंगे! तुम तो बाहों में रहोगे अपने साजन की! तो मियाँ....अपने हुजरे में बैठै ठाले इकल्ले मैं करुँगा क्या? लँड़चटई?

हाँ बे सितमगर जमाने...! चूरन तो हो तुम...!

हम अपना खुदा खुद बनाते पर क्या करें, हमारे 'वस्ल' को जमाना 'कचाने' जैसा कुछ समझता है!

२:-)
"हज़ार दर्द शब-ए-आरजू की राह में है,
कोई ठिकाना बताओ कि काफिला उतरे!
करीब और भी आओ कि शौक-ए-दीद मिटे,
शराब और पिलाओ कि कुछ नशा उतरे!!

मने हमारी इबादतें, मोहब्बतें सब तुमको ठरक़ ही दिक्खा करें है? रात भर कुड़कुड़ाती हैं हड्डियाँ मानों! एक कम्बख्त़ तो हड्डियाँ तुड़ा बैठा...हमसे दो चार लट्ठ भी न खाए जाएँगे भला? हमें उस सुर्ख चेहरे पर चमकती दो आँखों की कसम उस्ताज़....नाली में गिरें या कि मक़ाँ और कहीं हो....तुम चाटने दो शीशियाँ अङ्गूर के बागों की!

सचमुच तुम्हें शाइरी की समझ नहीं कम्बख्तों, तुम क्या समझो कि....

३:-)
जब्त का अहद भी है, शौक का पैमान भी है!
अहद ओ पैमाँ से गुजर जाने को जी चाहता है!!
दर्द इतना है कि हर रंग में है महश़र बरपा!
और सकूँ ऐसा कि मर जाने को जी चाहता है!!

अब रहन दे साकी....मीना बाजार बन्द कर अपना! तेल निकाल दिया बहन की लौ* ने! रैण दे इन्हे पोएट्री का पूँ बी नहीं पता! हम कराहें ना तो क्या कहें!!

हम देखेंगे!
अगला पिछला सब देखेंगे!
काला उजला सब देखेंगे!
जब पाएँगे तब देखेंगे!
हम देखेंगे, सब देखेंगे!
🙂

#फैज #थुख्तर #नूरजहाँ





Sunday 22 December 2019

छिनरी का स्वप्न...!

छिनरी गाँव में लोटा लेके
बाग बगईचा जाती है!
गली मुहल्ला, हिंसाहल्ला
वालों से ठुकवाती है!!

बाप से लड़ के एक दिन छिनरी
सीधा दिल्ली जाएगी!
चाहें फट के फ्लावर हो जा
गैंगबैंग करवाएगी!!

वामी कौमी नाला बापू
सदा पबित्तर होता है!
भाँज के मुट्ठी एक के बाजू
दस दस लौण्डा सोता है!!

दम्मादम सिगरेट चलेगी
दारू का कुल्ला होगा!
१८+ होने दो हमको
सब खुल्लमखुल्ला होगा!!

वहाँ मिलेंगे पाक तराने
जिनमें आजादी होगी!
देने से जो मना करूँगी
तब नऽ बर्बादी होगी!!

कितना चकचक आलम होगा
पीर मिटेगी बरसों की!
ल्युब्रिकेन्ट होगा बिलायती
शीशी फेंको सरसों की!!

फैजू के नारे से सारी
दिल्ली धक-धक गूँजेगी!
गली गली से भीड़ निकलकर
बसें, दुकानें फूँकेगी!!

शाम हुई यह छिनरी टप-टप
लाल गुलाब मँगाएगी!
जहाँ कैमरा पाएगी
बस वहीं काण्ड करवाएगी!!

बापू अपना डण्डा दे दो
जन्तर मन्तर जाऊँगी!
सोनिया जी से बात हुई है
मोदिया को गरियाऊँगी!!

अब्दुल मेरा लभर बॉय है
पन्चर साटा करता है!
मिलती हूँ जब भी उससे
वो टेडी बाँटा करता है!!

उसके अब्बा इसी मार्च में
हुज्जत* करके आए हैं!
बात हुई है बाद कोहर्रम
पासपोर्ट बनवाएँगे!!

सुन लो बापू कान खोल के
हम सलमा बन जाएँगे!
टीपू की फुफ्फू हैं माना
तब अम्मी कहलाएँगे!!

तुम हो ढोर गँवार उमर भर
यूँ ही कुढ़ते कलपोगे!
हम कूटेंगे बिरयानी तुम
नून तेल को तरसोगे!!

(अपूर्ण)

Saturday 21 September 2019

सङ्कर शङ्कर....!

सङ्कर को वायु पुराण के इसी वक्तव्य की सहायता से समझें तो यह क्षत्रिय इन्द्र के हविष्य में ब्राह्मण बृहस्पति के हविष्य मिलने की बात करता है। हविष्य को याज्ञिक अनुष्ठान में प्रयुक्त होने वाली आहुति से समझें तो दो भिन्न आह्वानों अथवा गुणों के एक होने से उत्पन्न अवस्था सूत अवस्था है। यहाँ तामस भाव का कोई वर्णन नहीं, सो त्याज्य होने का प्रश्न ही नहीं। देवगुरु बृहस्पति का उच्चतम आदर्श व देवेन्द्र इन्द्र के तेज की सार्वभौम स्वीकृति उस पद का सृजन करती है जिसे सङ्कर अथवा सूत कहा गया।

परम्परा से उन्हें धर्म क्या दिया गया? देवताओं, ऋषियों, व उच्च आदर्श प्रतिष्ठित राजन्यों तथा मनीषियों द्वारा प्राप्त सुवचनों को धारण करने का या आचरण में लाने का!

क्या सङ्कर अथवा सूत वह परम्परा नहीं जो ब्रह्मज्ञान व क्षात्रतेज को आदर्शों के अत्युच्च शिखर तक प्रतिष्ठित रखने की बात करता है? रामकथा भी प्रारम्भ में शिवजी ने उमा से कही थी नऽ? कैलाशवासी शङ्कर? सबसे निराले?

होल्ड, होल्ड.....अब कोई लाठी मत भाँजने लग जाना हम पर! 🙂

गरीब मनई हूँ मालक! 😁