अनन्त की ओज पाना
सहज कहाँ?
कहाँ वह ऋत?
जो चुने विश्वरथ को,
भरत, भृगु, भार्गवों में से!
देव, दस्यु, दानव,
सब उपस्थित!
मैत्रावरुण, दिवोदास
तुत्सुओं, श्रृञ्जयों!
अहो!
तुम रचो ऋचीक
जमदग्नि, जामदग्नेय
घोषाओं, सत्यवतियों
भगवती लोपाओं!
वरुणों, आदित्यों
अग्नि, देवेन्द्रो
उपेन्द्र, पुरुषोत्तमों
मैं निरुपाय, असहाय!
मैं,
कहीं हो न जाऊँ भस्मी-भूत
वामदेव होने तक,
विश्वामित्रों की कृपा-छाया में
भेज क्यों न देती त्रिपुर-सुन्दरी?
आवाहयामि जगदम्बिके
No comments:
Post a Comment