Wednesday 2 September 2020

'बकासुर की गोद में'

उन दिनों शिराओं में रक्त नहीं, सेक्युलरिज्म बहता था!

वर्षों पश्चात 'समीर' से मिलना हुआ। मिलना क्या हुआ, बुलाया गया था‌। 'भाभीजी' के साथ तरकारियाँ लेते उसे देखा तो कई बार.....पर न जाने क्यों देखकर भी कभी कुछ कहा नहीं! समय के पाठ कई बार गहरे, और गहरे तक उतरते चले जाते हैं। तोरी-पालक में उलझा मैं उस दिन भी यूँ ही चला जाता यदि.....!

प्रथम आमने-सामने का विवाद! उसके पश्चात तो मोदी, हिन्दू, दलित, मुस्लिम जानें क्या-क्या? कितनी-कितनी बार! अब उधर देखने को भी जी नहीं चाहता।

तरकारियों से होती भेंट अन्तत: भाभीजी को मुझ तक ले ही आई। अरे भैया...आप तो आते ही नहीं अब! कभी आएँ फिर से खाने पर सबके साथ, बहुत दिन हुए! कब आएँगे? आना भी है कि नहीं? मैं अचकचा गया।

जाने क्या सोच समीर को कल फैक्ट्री पर मिलने की कह आया।

अब सोचता हूँ...व्यक्ति उस प्रत्येक स्थान पर उसी समय होता है जहाँ वास्तव में उसे होना चाहिए! समीर की फैक्ट्री के निकट पहुँचा मैं अन्दर चलता चला गया। सब पूर्व निरीक्षित, पर अजीब सी शान्ति थी उस दिन! जैसे...कोई मर गया हो!

मेरे आने की सूचना उसने किसी को दी! कुछ इधर-उधर के पश्चात भोजन की बात पर मैंने जो बार-बार नकारात्मक उत्तर दिया तो वह कुछ खिन्न सा हुआ। अब वह अनुनय भी शेष नहीं जो पूर्व में बहुधा हुआ करता था। समय बाबू मोशाय समय...!अब यह तो २०२० था। अपने हृदय में ही प्रश्नोत्तरी सा करता मैं फोन की पुकार सुन कक्ष से बाहर आ प्राङ्गण में टहलने लगा।

दो लड़के। आश्चर्यजनक बात यह कि दोनों अद्भुत रूपेण कृशकाय! एक चुपचाप उस पतरे को घिसने में व्यस्त था जिसका मनवाञ्छित परिवर्तन काफिरों की लक्ष्मी माता के आगमन की गारण्टी होता है। मैं रुककर उसे देखने लगा था। पतरे वाले को  निहारता, कभी हथेलियाँ लहराता मैं बातें कर ही रहा था कि वह 'दूसरा' जैसे लपक कर मेरे निकट आया। अब वह मेरे ठीक सामने था और...!

उसकी हथेली, दो उंगलियाँ और मेरा गला! अचानक यह क्या हुआ...मुझे जैसे कुछ समझ में ही नहीं आया। जब कुछ क्षणों पश्चात चेतना लौटी तो बोध हुआ, वे दो उंगलियाँ मेरे गले को दो ऐसे स्थानों पर दबा रही थीं कि मेरे कण्ठ से कुछ भी बाहर नहीं आ सकता था। मेरे हाथों ने उससे बचने छूटने के प्रयास में जाने कब प्रतिरोध करना प्रारम्भ किया, यह भी कुछ विशेष स्पष्ट नहीं!

उसका कृशकाय होना मेरे पक्ष में गया अथवा विधि की इच्छा! मेरा प्रतिरोध उस पर भारी पड़ा! उसे नीचे गिरा जब मैंने पीछे की ओर देखा तो 'समीर' को अपने ऑफिस से बाहर झाँकता हुआ पाया जबकि पहला अभी भी चुपचाप पतरा घिसने में व्यस्त था‌! जैसे कहीं कुछ हुआ ही नहीं! मैं भी अब संयत हो चुका था।

सेक्युलरिज्म की 'लाश' ढोता मैं एक बार फिर स्वयँ को समझाता बाहर निकलता गया! बिना किसी से एक शब्द कहे! शीत-बसन्त!

और एक बार पुनः!

'मैं उस सही समय पर, उस सही स्थान पर था!'

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