Sunday 11 November 2018

बचपन और ननिहाल


सोचा भी न था, ऐसे बीत जाऊंगा!

हे छोटी उम्र के साथी...बड़ी मौसी के घर प्रथम 'कोदो' का भात पाया। ननिहाल का वह तीन तीन बार का सिर फोड़ कुँआ आज तक स्मरण है! बरसती बूंदों में चबूतरे पर फिसलने से लेकर, नानी का मेरा सिर दबाना और मामा जो बाल्टी से पानी गिराए जाते...कि पूरा कुँआ लाल लाल!

गन्ने के पत्ते से डाँड़ पर बैठे केकड़े को पकड़ने की कला में पारङ्गत हुए! 'कउड़ा' में आलू भून कर खाया! पका तरकुल मनपसन्द! भैया ने कच्चा इतना अधिक खाया कि तीन दिन पीड़ा से छटपटाए! हाय..वैसा 'कटहर का कोआ' फिर न बदा हुआ!

मैं नहीं कहता... कोई मन की बात! भैया, छोटी बहन और मैं! मौसी की अमराई में बन्दरों का जो झुण्ड था कि पूछिए मत! दो तीन बोरी आम नित्य प्रति वृक्षों से नीचे आ जाते। गजब 'गुरमा' बनाती थीं मौसी!

अपने घर खिचड़ी नहीं सहती, सो मौसाजी बोरी बोरी 'लाई' ले के आते!

मामा मौसी आज भी हैं किन्तु वह घर अब सपना हो गया! शैतानियों पर हमें डराने के हथियारों में मम्मी के 'श्री' चाचा...! ओह...आँखें उलट कर जो डराते कि हम बच्चे 'चंचरे' के पीछे से निकलते ही नहीं! शेष 'बाकुम बाकुम..दूगो चाऊर दे दो तुम' और 'धरकोसवा' पूरी करते!

ईश्वर जानें....यह आधी अधूरी स्मृति भी है या नहीं बड़े भैया के अवचेतन में! बहन तो छोटी ही थी हमसे!

तेरह चौदह वर्ष पश्चात् जब पङ्कज मामा के विवाह में गए... तब भी बिलरिया के घर जा 'रोटी' खाने की स्मृति थी! और तब तो 'रामप्रवेश' की बीवी ने भी स्वागत किया!

गाँव में हम सबके दुलारे हुआ करते.... नन्हें जी! नाना ने कभी नाम ले पुकारा न होगा। इसी दिल्ली से मामाजी कैमरा लेकर आए थे! मामाजी के पास मेरा वह 'नङ्गू' फोटो अभी भी है जो आंगन में खींचा गया था। बाद की भेंट में मामी कहतीं...बाबू आपकी 'बीबी' को दूंगी... मुंहदिखाई में! मामी को क्या पता...बाबू के जीवन को जाने किसका शाप पड़ गया...गांड़ीऽ हरदीऽ ना लागी!

यह लिखते लिखते आँखें भीग गयी हैं... नानाजी...नानी...कठकुंईयाँ...बकरीफारम!

वहां का लिख देने को बहुत कुछ है। किन्तु जीवन रुकता नहीं, किसी के बिना नहीं!


(चित्र आभार: गिरिजेश राव जी)


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