Monday 5 November 2018

*ये औरतें*
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ये पाप करने वाले
ये सब जानते हैं
कैसे छुपाना है स्वयँ को
किसी ओढ़ी हुई गम्भीरता से!

क्यों ये औरतें
घर से निकलती हैं
कार्यालयों में जाती हैं
घर, मकान, दुकान
सबका सामान ले जाती हैं!

बच्चे का दूध
राशन का बिल
अब व्यथित नहीं करता
उनके किरदार को
क्योंकि
वे जानती हैं
कैसे 'हैण्डल' करना है
किसी नकचढ़े 'मनसबदार' को।

इन औरतों की इन्द्रियाँ
किसी को भी भाँप लेती हैं
तुम्हारी नजर
चाहें जितना 'नाप' लेती है!

अब यही औरतें नचाती हैं
तुम्हें रूप के फन्दे में बाँध
तुम्हें जुल्फ़ों की तासीर
और नजरों के तीर में
कहीं बिस्तर और कहीं
चादर की सिलवटें नजर आती हैं!

एक दिन की बात
और छोटी सी मुलाकात
भला कैसे दोनों का सिक्का
बराबर खोटा नहीं!

कैसा हो
जब ये औरतें
चढ़ें तुम्हारी छाती पर
और करें ताण्डव
तुम्हारी लोलुपता पर
बीच बाजार!

सम्हल जाओ अब भी
क्योंकि
नसीहतों के दौर
स्थायी नहीं
तुम दोषी हो
सो कोई सुनवाई नहीं!

वो औरत है
कोई मलाई नहीं
तुम इन्सान हो
कोई कसाई नहीं!

एक न एक दिन तुम भी
शूली चढ़ाए जाओगे
यहाँ से बच भी गए तो
वहाँ क्या मुँह दिखाओगे!

(व्यथा-कथा)

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