Friday 30 November 2018

जन्तर मन्तर, रामलीला मैदान और किसान-1

लेख से पूर्व एक विशेष अनुरोध:-
(प्रस्तुत लेख से सहमति, असहमति आपके विवेक पर! अपने विचार व्यक्त करने हेतु आप स्वतन्त्र हैं, किन्तु मर्यादित रहकर! अशोभनीय टिप्पणीकर्ताओं को बाधित कर दिया जाएगा।
सादर)


हमने, आपने, सबने पढ़ा होगा कहीं न कहीं....भारत एक कृषि प्रधान देश है, एवँ भारत की ७० प्रतिशत जनसङ्ख्या गाँवों में बसती है। पूर्व प्रचारित आँकड़ों और शब्दों पर न जाते हुए यहाँ हम यह अवश्य कहना चाहेंगे कि किसी भी देश-प्रदेश में, अर्थव्यवस्था की धुरी कहे जाने वाले कृषि क्षेत्र की जितनी उपेक्षा भारतीय उपमहाद्वीप में हुई है, उतनी अन्यत्र कहीं नहीं! भारतीय किसानों की दुर्दशा के उत्तरदायी जितनी मात्रा में सरकारें हुईं, उतना ही स्वयँ किसान एवँ उनके परवर्ती समूह भी इस दुर्दशा के उत्तरदायी रहे। इस कथ्य को ऐसे समझें...!

स्वतन्त्र भारत में किसान एवँ मजदूर सङ्घ एवँ उनकी उपयोगिता की अवधारणा तक पहुंचने के पूर्व हमें यह तथ्य भी जानना अत्यन्त आवश्यक है कि स्वतन्त्रता प्राप्ति की चिर प्रतीक्षित इच्छा के मूल में भी कृषक-जमींदार, कृषक-महाजन व कृषक-ब्रिटिश समूहों का ही योगदान था। वस्तुत: सामाजिक, जातिवादी, नीतिवादी और व्यक्तिवादी महत्वाकाञ्क्षी समूहों द्वारा एक लम्बे दमन से त्रस्त भारतीय कृषक समाज तब बुरी तरह आन्दोलित हुआ जब भारतवर्ष में १९४३-१९४४ का भयानक दुर्भिक्ष हुआ।

तथ्य बताते हैं कि इस दुर्भिक्ष के समय में भी तत्कालिक दमनकारी ब्रिटिश सरकार ने देश में ४० लाख टन अन्न की कमी होने पर भी १० लाख टन अन्न विदेशों को निर्यात किया जो कृषकों की पूर्ववर्ती दयनीय स्थिति में आग में घी की भाँति रहा। परिणाम स्वरूप परतन्त्र भारत के वे सारे किसान आन्दोलन जो कृषकों ने इससे पूर्व किए थे, उनसे कई गुना वृहद् स्तर पर कृषक समाज स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए प्राणोत्सर्ग भी करने हेतु तत्पर हो गया था। यहाँ से आगे हम भारतीय किसानों के उन आन्दोलनों का इतिहास भी देखेंगे जो भाँति भाँति के सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक सन्दर्भों में समय समय पर होते रहे। हमारा उद्देश्य इनकी व्याख्या करने से इतर इनसे आपको अवगत् कराने से रहेगा।

१- प्रचलित सन् १८५९-६० का नील आन्दोलन इस शृंखला का प्रथम आन्दोलन कहा जा सकता है जो ददनी प्रथा और तिनकठिया के नाम से जाना जाता है। १८५९ में पाबना जिले से प्रारम्भ हुआ यह आन्दोलन कालान्तर में १८७३ में 'कृषक-सङ्घ' की स्थापना का हेतु बना।

२- प्र. स. १८७२ में भगत जवाहरमल ने कूका विद्रोह की नींव रखी जिसका उद्देश्य ब्रिटिश सरकार की नीतियों का विरोध करना था और जिसका अन्त 'बाबा रामसिंह' को अंग्रेजी सरकार द्वारा रङ्गून निर्वासित कर, कर दिया गया।

३- प्र. स. १८७४ में शिरूर तालुके में हुआ साहूकार विरोधी आन्दोलन दक्कन का विद्रोह कहा गया जिसके मूल में एक सूदखोर कालूराम द्वारा कृषक बाबाजी देशमुख की सम्पत्ति के नीलामी आदेश की प्राप्ति थी।

४- प्र. स. १९१८ में पण्डित मदन मोहन मालवीय जी एवँ होम रूल लीग के तत्वाधान में उत्तर प्रदेश में 'किसान सभा' का गठन किया गया जिसकी सक्रिय उपस्थिति 'एका आन्दोलन' में थी।

५- प्र. स. १९२० में केरल के मलाबार में हुआ 'मोपला आन्दोलन' जिसके मूल भाव को तत्कालिक स्वार्थी तत्वों द्वारा छिन्न भिन्न कर दिया गया और यह साम्प्रदायिक सङ्घर्ष में परिवर्तित हो गया।

इस शृंखला में अन्य कृषक आन्दोलन भी उतने ही प्रासङ्गिक हैं जितना कि इन प्रमुख आन्दोलनों का मुख्य इतिहास। अस्तु हम पाठकों हेतु उनका उल्लेख भी करते चलते हैं, विस्तृत विवरण हेतु समय का अभाव है, ऐसी आशा है कि पाठक हमारा मन्तव्य समझते होंगे।

रामोसी किसानों का विद्रोह, बिरसा मुण्डा से प्रारम्भ हो ताना भगत आन्दोलन तक, तेभागा आन्दोलन, तेलङ्गाना आन्दोलन, बिजोलिया किसान आन्दोलन, बिहार किसान सभा से प्रारम्भ होकर आन्ध्र प्रान्तीय रैय्यत सभा व उत्कल प्रान्तीय किसान सभा, कृषक प्रजा पार्टी, संयुक्त प्रान्त की किसान सभा के 'अखिल भारतीय किसान संगठन' में विलय तक, चम्पारण सत्याग्रह, खेड़ा सत्याग्रह, बारदोली सत्याग्रह आदि तक इन आन्दोलनों का दीर्घ इतिहास रहा जो व्यापक अर्थों में वास्तविक किसान आन्दोलन कहे जा सकते हैं।

इस प्रकार हम देखते हैं कि स्वतन्त्रता प्राप्ति तक, भारतीय उपमहाद्वीप के कृषक बन्धु अपनी स्वायत्तता हेतु अथक परिश्रम करते रहे और निरन्तर दमनकारी नीतियों के विरुद्ध अपना स्वर मुखर करते रहे। अब यहाँ प्रश्न यह उठता है कि इतने दीर्घतम सङ्घर्ष की प्राप्ति क्या रही? वह कौन से बिन्दु हैं जिन्हें कृषक समाज आज तक नहीं समझ सका व आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक प्रारूपों में आज भी पिछली कतारों में खड़ा है। समय समय पर किए गए इन आन्दोलनों से कृषकों को क्या मिला, हम इन लेखों में यह पता लगाने का प्रयास करेंगे। किन सँस्थाओं को इन आन्दोलनों ने लाभ पहुँचाया एवँ कृषक समूह क्यों वास्तविक लाभ से वञ्चित रहे, इस विषय पर अगले भाग में पुनः चर्चा की जाएगी! अस्तु आपका धैर्य अपेक्षित है।

(धन्यवाद)

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