Friday 30 November 2018

जन्तर मन्तर, रामलीला मैदान और किसान - 2


शृंखला को आगे बढ़ाने से पूर्व आज दिल्ली में हुए किसान आन्दोलन पर भी एक दृष्टि...!

कल रात एक मित्र Sajjan Chaudhry जो मेरे सहपाठी भी थे व पत्रकारिता से भी जुड़े हुए हैं, उन्होंने वहाँ से एक फेसबुक लाइव किया। वहाँ की गयी मेरी टिप्पणी के पश्चात् ही मेरे लिए यह लिखना सम्भव हो पाया... अतः उन्हें अनेकों बार साधुवाद।

जैसा कि पूर्वानुमान था, आन्दोलन उसी भाँति उफान पर है। नेताओं का जमघट लगा, राजनीतिक आरोप भी लगाए गए। व्यवस्था परिवर्तन का आह्वान भी हुआ और फोटो सेशन भी। अम्बानी, अडाणियों की बातें हुईं और प्रधानमन्त्री को वादे भी याद दिलाए गए। २०१९ के महागठबन्धन की सम्भावनाएँ ढूंढते २१ दलों में आपने देखा...किसान कहीं था इसमें? सच कहें....आपने देखे क्या?

मैं स्वयँ किसानी कर रहा हूँ। छोटा सा खेत है और उससे अपने लिए खाने भर का उपजाने का प्रयास रहता है। जातिगत आधार पर आप कह सकते हैं कि मेरे दादाओं परदादाओं के पास इतना था कि ५२ बीघे पुदीना बो सकें। मात्र ५० से १०० वर्षों ने इतना परिवर्तन देखा कि अपने लिए उपजा लें, इतना ही बहुत है। आप मुझे जमींदार, साहूकार या लाला की सन्तान मानकर गाली भी दे सकते हैं जिन्होंने किसानों, दलितों का सर्वदा शोषण किया है व सम्पत्ति बनायी। क्षमा...यह विषयान्तर हुआ!

केवल पूरब में ही आज मेरे जैसे न जाने कितने किसान ऐसे हैं जिन्होंने अभी अभी धान की फसल खेतों में सूखते देखा है। अब उनकी पहली प्राथमिकता खेतों में पानी देना, जुताई कराना, खाद-बीज की व्यवस्था कराना आदि है न कि दिल्ली जाकर फोटो खिंचवाना! यूँ ही तो नहीं कि जो खेती से मजाक करे वो बेटी से मजाक करे!

जिन क्षेत्रों से यह किसान बन्धु आए हैं, मैं नहीं कहता वहाँ समस्याएं नहीं या देश भर का किसान चैन की बाँसुरी बजा रहा है, किन्तु किसान बन्धुओं को यह समझना होगा कि ऐसी व्यवस्था में जहाँ इस सर्वहारा वर्ग के पुनर्जागरण की प्रसव पीड़ा से नित नए 'युवा नेता' व 'आम आदमी' जन्म लेते हों वहाँ उनकी समस्याओं का वास्तविक निदान क्या हो? किसान नेतागिरी करे अथवा किसानी?

आप ऐसी भीड़ के कर्ता-धर्ताओं को पहचानिए। उन्हें देखिए जो विन्टेज जीप पर किसान यात्रा करते हैं। यह जानते हुए भी कि यह जीप एक लीटर में मात्र ५ किमी चलती है। उन नेताओं का मुखौटा तो हटाइए जिन्हें चुनाव की घोषणा होते ही 'अन्नदाता किसान' 'विधाता किसान' की सुधि आने लगती है। उन हाशिए के हितैषियों को आवरणहीन कीजिए जिन्हें किसी किसान आन्दोलन में, दिल्ली में बैठे अपने आकाओं, हुक्कामों को शक्ति प्रदर्शन का आयोजन दिखाने और उनसे टिकट पाने का स्वर्णिम अवसर लगता है। उन शहरी नक्सलियों को ढूंढने का प्रयास कीजिए जो ऐसे आन्दोलनों के नाम पर आपसे सार्वजनिक सम्पत्ति को नुकसान पहुँचाने को कहते हैं।

समय रहते यदि आपने चेतना के इस स्तर को नहीं छुआ तो वह दिन भी दूर नहीं जब किसी किसान तो क्या, सार्वजनिक आन्दोलन को भी समर्थन देने वाला कोई नहीं बचेगा। दिल्ली में बैठे 'आम आदमी' (मुख्यमंत्री) का चेहरा स्मरण कर सोचिए... जिन्हें हर समस्या में मोदीजी का हाथ नजर आता है। कुर्ते के ऊपर जनेऊ धारण करने वाले दत्तात्रेय गोत्री राहुल गाँधी को देखकर सोचिए... तेलंगाना मैनिफेस्टो में कांग्रेस द्वारा की गयी घोषणा पढ़कर सोचिए! 'सीताराम येचुरी' जैसे कम्युनिस्ट, जो बुर्जुआ सभ्यताओं को गाली देते बड़े हुए, उनको सिर पर कलश लिए कलशयात्रा करते देखकर सोचिए! फारुख अब्दुल्ला के पाकिस्तान समर्थित वक्तव्य स्मरण करके सोचिए! योगेन्द्र यादव की नेतृत्व क्षमता और एनजीओ की घट-बढ़ के विषय में सोचिए, किन्तु सोचिए!
और अन्त में अपने बाल-बच्चों के भविष्य को लेकर सोचिए कि इन जैसे स्वघोषित, स्वनामधन्यों द्वारा व्यवस्था परिवर्तन करवाने के नाम पर आप पुन: जन्तर मन्तर जाएंगे?

अन्त में:- किसानों की एकता व जीवटता को भुनाने का कार्य जितनी निपुणता से वामपन्थियों ने किया उतना किसी अन्य ने नहीं, वैसे तो लङ्का में जो सबसे छोटा वो भी नौ हाथ का, की कहावत चरितार्थ करते राजनीतिक दलों ने किसानों को क्या दिया इस पर भी कई पृष्ठ लिखे जा सकते हैं किन्तु अगले भाग में इसी पर चर्चा होगी... धन्यवाद।

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