सङ्गीत की देवी ने, १९५५ ईस्वी में, चित्रपट झनक झनक पायल बाजे में इस कृष्णगीत को जब अपने सुरों में साधा होगा, तब कदाचित् कृष्णसखी मीरा का कहीं मौन आशीष भी रहा होगा, सुर साम्राज्ञी के स्वराभिनन्दन हेतु।
और सम्भवत: ठाकुर की मन्द-स्मित् मुस्कान तब भी थिरक रही होगी, वंशी के बोझ से किञ्चित पथराए ललछौहें अधरों पर।
आह...ईर्ष्या तू न गयी मेरे मन से।
मीरा तो कृष्णसखी हो किंवदन्ती बन गयी, किन्तु सुर-साम्राज्ञी की स्वर लहरियों में ढूँढता रहा हूँ मैं, वह विशुद्ध प्रेम।
जिससे आच्छादित होकर तिरोहित हो गया अधुना मनुष्यों की दृष्टि से, वह मीरा का गिरिधर गोपाल।
हा दैव!
ऐसा जनरञ्जन तो मानों व्यसन है उसका! न होता तो क्यों कहता वह?
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाऽचन!
अरे वो नटवर है न, तो हम जैसों को नचाना बहुत भाता है उसे।
सुना है, वह जब वंशी बजाता, तो कदम्ब की डालियाँ तक नृत्य कर उठतीं। सुर-असुर, चर-अचर, यक्ष-गन्धर्व सब निश्चेष्ट हो जाते। कुछ ऐसे अपने स्वरों से सम्मोहित करता वह।
यही नहीं...केवल ब्रज गोपियों तक की कौन कहे, अपनी माँ को भी तो कितना नचाया उसने।
किन्तु तब भी, सबके मन-मन्दिर का एकमात्र अधिपति रहा वह कन्हैया!
छलिया, निर्मोही....राधा भी यूँ ही तो न कहती होगी उसे!
अब अधिक क्या कहूँ? भारत नें देखें हैं उसके जानें कितने रूप। हर रूप में कृष्ण, हर कृष्ण का रूप।
उसकी गाथा कहते सूर ने हजारों पद लिख डाले किन्तु साथ साथ यह भी दुहराते रहे...।
अबिगत गति कछु कहत न आवै।
मैं सोचता हूँ, विशुद्ध प्रेम है वह। कुछ ऐसा कि उसका स्मरण मात्र रोमाञ्चित कर जाता है।
ध्यातव्य हो कि कहाँ आकण्ठ भक्ति मूर्ति कृष्ण-दासी मीरा का नटवर-नागर और राधा व गोपिकाओं के सङ्ग, युगों युगों से अनवरत् चलता उसका प्रेम सम्बन्धी महा-रास और कहाँ आततायी कौरव सेना के सम्मुख अमित पराक्रमी वासुदेव कृष्ण। सोलह कलाओं का एकमात्र अधिपति।
कृष्ण के विराट व्यक्तित्व को या महा-रास के सौन्दर्य को मैं वर्णित कर सकूँ, ऐसा बोध कम से कम मुझ अज्ञानी में तो कदापि नहीं।
वह तो केवल उन स्थित-प्रज्ञों की मेधा में है, जिनका मैं हो जाना चाहता हूँ अनुचर।
और आस्वादन कर लेना चाहता हूँ, तपती दोपहर में कदम्ब वृक्ष की छाँह तले, वंशीधर की कृपादृष्टि के उस शीतल स्नान का जिसकी एकमात्र अर्हता है, उसका अनन्य प्रेम।
मैं तो बस भींजना चाहता हूँ, कृष्णभक्ति की उन रिमझिम फुहारों में... जिनमें भींगी मथुरा-वृंदावन की असंख्य विभूतियाँ आद्योपान्त, रस से सराबोर!
और थी जिसकी प्रत्येक बूँद, मानों कई कई अमृत कलश।
उसकी चरण-रज में सन मैं भी बस श्याम रङ्ग हो जाता। उसे निविड़ अंधेरी रातों में उच्च स्वर में पुकारता, यदा कदा जन्माष्टमी मनाने वालों की भीड़ में करताल बजाते हुए अनायास रो पड़ता। चैतन्य महाप्रभु की भाँति नृत्य करता और गा उठता कृष्ण-दासी मीरा के उन्हीं शब्दों को जिनमें कन्हैया के प्रति अनुराग और ज्ञानियों को वैराग्य हो जाता है।
अरे...तुम चुप क्यों हो? सुर-साम्राज्ञी.... पुनः गाओ न!
"जो तुम तोड़ो पिया, मैं नाहीं तोडूँ रे!"
और सम्भवत: ठाकुर की मन्द-स्मित् मुस्कान तब भी थिरक रही होगी, वंशी के बोझ से किञ्चित पथराए ललछौहें अधरों पर।
आह...ईर्ष्या तू न गयी मेरे मन से।
मीरा तो कृष्णसखी हो किंवदन्ती बन गयी, किन्तु सुर-साम्राज्ञी की स्वर लहरियों में ढूँढता रहा हूँ मैं, वह विशुद्ध प्रेम।
जिससे आच्छादित होकर तिरोहित हो गया अधुना मनुष्यों की दृष्टि से, वह मीरा का गिरिधर गोपाल।
हा दैव!
ऐसा जनरञ्जन तो मानों व्यसन है उसका! न होता तो क्यों कहता वह?
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाऽचन!
अरे वो नटवर है न, तो हम जैसों को नचाना बहुत भाता है उसे।
सुना है, वह जब वंशी बजाता, तो कदम्ब की डालियाँ तक नृत्य कर उठतीं। सुर-असुर, चर-अचर, यक्ष-गन्धर्व सब निश्चेष्ट हो जाते। कुछ ऐसे अपने स्वरों से सम्मोहित करता वह।
यही नहीं...केवल ब्रज गोपियों तक की कौन कहे, अपनी माँ को भी तो कितना नचाया उसने।
किन्तु तब भी, सबके मन-मन्दिर का एकमात्र अधिपति रहा वह कन्हैया!
छलिया, निर्मोही....राधा भी यूँ ही तो न कहती होगी उसे!
अब अधिक क्या कहूँ? भारत नें देखें हैं उसके जानें कितने रूप। हर रूप में कृष्ण, हर कृष्ण का रूप।
उसकी गाथा कहते सूर ने हजारों पद लिख डाले किन्तु साथ साथ यह भी दुहराते रहे...।
अबिगत गति कछु कहत न आवै।
मैं सोचता हूँ, विशुद्ध प्रेम है वह। कुछ ऐसा कि उसका स्मरण मात्र रोमाञ्चित कर जाता है।
ध्यातव्य हो कि कहाँ आकण्ठ भक्ति मूर्ति कृष्ण-दासी मीरा का नटवर-नागर और राधा व गोपिकाओं के सङ्ग, युगों युगों से अनवरत् चलता उसका प्रेम सम्बन्धी महा-रास और कहाँ आततायी कौरव सेना के सम्मुख अमित पराक्रमी वासुदेव कृष्ण। सोलह कलाओं का एकमात्र अधिपति।
कृष्ण के विराट व्यक्तित्व को या महा-रास के सौन्दर्य को मैं वर्णित कर सकूँ, ऐसा बोध कम से कम मुझ अज्ञानी में तो कदापि नहीं।
वह तो केवल उन स्थित-प्रज्ञों की मेधा में है, जिनका मैं हो जाना चाहता हूँ अनुचर।
और आस्वादन कर लेना चाहता हूँ, तपती दोपहर में कदम्ब वृक्ष की छाँह तले, वंशीधर की कृपादृष्टि के उस शीतल स्नान का जिसकी एकमात्र अर्हता है, उसका अनन्य प्रेम।
मैं तो बस भींजना चाहता हूँ, कृष्णभक्ति की उन रिमझिम फुहारों में... जिनमें भींगी मथुरा-वृंदावन की असंख्य विभूतियाँ आद्योपान्त, रस से सराबोर!
और थी जिसकी प्रत्येक बूँद, मानों कई कई अमृत कलश।
उसकी चरण-रज में सन मैं भी बस श्याम रङ्ग हो जाता। उसे निविड़ अंधेरी रातों में उच्च स्वर में पुकारता, यदा कदा जन्माष्टमी मनाने वालों की भीड़ में करताल बजाते हुए अनायास रो पड़ता। चैतन्य महाप्रभु की भाँति नृत्य करता और गा उठता कृष्ण-दासी मीरा के उन्हीं शब्दों को जिनमें कन्हैया के प्रति अनुराग और ज्ञानियों को वैराग्य हो जाता है।
अरे...तुम चुप क्यों हो? सुर-साम्राज्ञी.... पुनः गाओ न!
"जो तुम तोड़ो पिया, मैं नाहीं तोडूँ रे!"
No comments:
Post a Comment