Sunday 21 October 2018

जय बजरङ्गी!


श्री रामचन्द्र के दूता, हनुमन्ता आञ्जनेया...!
सनातन धर्म भावना प्रधान है।
कहीं सुना था....भावना में यदि भाव ना हो, तो "भावना" व्यर्थ है।
कहने वालों ने तो संसार को भी भाव-जगत कहा है।
और परमात्मा को तत्त्व!
किसी भी भाव का सृजन, तत्त्व की अनुपस्थिति में नहीं होता।
बालक का जन्म होने पर माँ के स्तनों में दुग्ध स्वयँ प्रवाहित होने लगता है।
किसी नवविवाहिता के पति की असमय मृत्यु हो जाए तो उसका हृदय तत्क्षण प्रस्तर तुल्य हो जाता है।
यदि यह सत्य है, तो इस भावना-प्रधान जगत में मेरे "आञ्जनेय" से श्रेष्ठ कौन?
"हनुमन्ता" के मित्र भाव, पुत्र भाव, गुरु भाव, दास्य भाव  की कोई तुलना है?
"तुम मम प्रिय भरतहि सम भाई!" स्वयँ भगवान की उक्ति उनके हेतु इस भाव में कि... "हे आञ्जनेय! तुम मेरे हेतु भाई भरत के समान हो!"
किष्किन्धाकाण्ड में शेषावतार "लक्ष्मण" के सम्मुख यह स्वीकारोक्ति कि.......सुनु कपि जनि मानहु जिय ऊना, तै मम प्रिय लछिमन ते दूना!
अर्थात्: हे कपिश्रेष्ठ! तनिक भी क्षोभ न करें, मुझे आप भाई लक्ष्मण की अपेक्षा दूने प्रिय हैं।
"हनुमानजी" देवता हैं या नहीं? ऐसा संशय बहुधा प्रकट किया जाता है।
तो भन्ते!
हनुमानजी देवता हों या नहीं ये आप सोचो।
हम तो बस यह जानते हैं कि हनुमानजी महाराज ने स्वयँ कहा विभीषण से कि मेरे प्रभु श्रीराम का क्या वर्णन करूं मैं? आप तो बस यूँ समझिएगा कि.....!
अस मैं अधम सखा सुनु, मोहूँ पर रघुबीर।
कीन्हीं कृपा सुमिरि गुन, भरे बिलोचन नीर।।
उन हनुमानजी महाराज के उसी भाव प्रधान रूप का ध्यान करते हुए मैं स्मरण करता हूँ।
"अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं
दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम्।
सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं
रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि।।"
# हनु #आञ्जनेय #मानस

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