Saturday 20 October 2018

विवाह के कुतर्की

हिन्दू विवाह सँस्थानिक वेश्यावृत्ति है।

आधुनिक (स्वघोषित) विश्व मानव के शब्दों में...!

पति के पास भेजे जाते समय एक पुत्री क्या कहे अपनी माँ से? माँ... क्या यह तुम्हीं हो जो मुझे चारित्रिक अनुशीलन का पाठ पढ़ाते नहीं थकती थी? अब बोध हुआ, सम्भवत: हिन्दू कन्याएँ निज विवाह में यही सोच पछाड़े खाती हों कि हाय.....मेरी माँ व मेरा समाज आज स्वयँ धकेले जाता है मुझे, शीलभङ्ग ( विश्व मानव के शब्दों में वेश्यावृत्ति) कराने हेतु एक बलात्कारी के हाथ!

हा धरित्री! फट क्यों नहीं जाती तेरी छाती इस अन्याय से!

विश्व मानव आगे कहते हैं... विवाह से मैथुन हटा दिया जाए तो देखें कितने लोग हैं जो विवाह - एक पवित्र अवधारणा को ढोने का साहस करेंगे?

यही नहीं और भी बहुत से कुतर्क, स्वयँ के कथन की प्रमाणिकता के सापेक्ष!

अस्तु यह छोटा सा उत्तर तो लेते जाओ विश्व मानव! अधिक कहने की इच्छा नहीं...क्योंकि हम भी तुम्हें इस योग्य नहीं समझते कि तुम्हें तुम्हारे प्रश्नों के उत्तर दिए जाएँ। वो क्या है न... सनातन कहता है हमें...मूर्खाणां किम्  उपदेशम्?

सो यह उद्योग भी मात्र इस हेतु है कि सभ्यताओं नें तुम्हें चुना है, इस विजयादशमी पर उपसँहार हेतु।

तुम्हें अनुभव न हो कदाचित्, किसी श्रेष्ठ से पूछना...
रजोनिवृति पश्चात् विवाह से मैथुन अनुमानतः समाप्ति की ओर अग्रसरित होता है और पूर्णतया अनुपस्थित होता है, जीवन के उन अन्तिम क्षणों में, जहाँ एक पति और पत्नी अपने दाम्पत्य के उन टिमटिमाते तारों को देख रहे होते हैं उस विशाल और अपरिमित नील गगन में आकाशदीप बनने को उद्यत हो, अवश्यम्भावी मृत्यु का आलिङ्गन करने को बाहों में बाहें डाले, मैथुन की परिकल्पना से कोसों दूर।
और यह उन्हीं मन्त्रों और लोक का ही प्रताप होता है जिन्हें तुम व्यर्थ कहते नहीं थके और आश्चर्य यह कि बिना मैथुन जीवन व्यतीत करते वह अनपढ़, अज्ञानी, मूढ़मति पति पत्नी तब भी एक दूसरे का त्याग नहीं करते। जो कि उन्हें बहुत पहले कर देना चाहिए न?

तुम कहते हो हिन्दू विवाह में प्रेम नहीं होता, किन्तु वहीं कुटिलता के मारे तुम और तुम्हारी स्वघोषित तीक्ष्ण मेधा स्पष्टरूपेण प्रेम की व्याख्या करने में आश्चर्यजनक रूप से शान्त होती है, हो भी क्यों न! प्रेम को यदि तुम जैसे स्वघोषित विश्वमानव परिभाषित करने लगें कि लो देखो न प्रेम की व्याख्या...तो क्या पाथेय हो सभ्यताओं के उस युग गान का जिसकी अनुगूँज से परिभाषित है प्रकृति का कण-कण और क्षण क्षण!

हे प्रबुद्ध... ये शब्द तुम्हें भी तो पहचानते हैं?

अब प्रेम सम्बन्धी तुम्हारी व्याख्या के लिए क्या मैं यूँ कहूँ? हे सर्वशक्तिमान अत्याधुनिक विश्व मानव! इस निकृष्ट युग की नीरव निशा में हम हिन्दू सभ्यताएँ साङ्गोपाङ्ग अज्ञानता रूपी अन्धकार में आकण्ठ डूबी हुई हैं। अत: हे सभ्यताओं के उद्धारक!
कृपा कर अपनी लेखनी से हमें उदयाचल की सूर्य रश्मियों सी अनन्य शब्द सुधा का रसपान कराएँ! हे अज्ञातकुलशील! यह मरण को उद्यत निकृष्ट सभ्यताएँ आप खञ्जन नयन के भृकुटि विलास से उपकृत होने की आकाङ्क्षा रखती हैं। दया करो...हे लेखेन्द्र!

या अब सीधे सपाट शब्दों में कहें... सुनो बालक!
तुम्हें बलात्कार या अन्य वह सारे शब्द जिनकी परिभाषा और परिस्थितियों पर बिना थके तुम कागज़ काले करते जा रहे, तुम्हें और अधिक सम्यक् अध्ययन की आवश्यकता है। सनातन की अवहेलना तज क्या तुम कोई एक उदाहरण दोगे जहाँ बलात्कार करवाने हेतु कोई कन्या सोलह शृंगार कर आप अपने बलात्कारी हेतु दूध का गिलास लेकर जाए और मृत्यु पर्यन्त उसी बलात्कारी के साथ रहे?

विश्व मानव...सनद रहे...पश्चिम की पुस्तकों से पूरब का पता पूछोगे तो यूँ ही रगड़े जाओगे।

सो हे विश्व मानव! ईश्वर तुम्हें सद्बुद्धि दे! शब्दों का यह खेल सब समझते हैं लल्ला! वे बस तुम्हें उत्तर देने योग्य नहीं समझते। तुम पुनः कर लो अट्टहास और व्याख्याएं!

सनातन तब भी यूँ ही युग गान करता रहेगा। लाखों करोड़ों काफ्काओं, दोस्तेव्येस्की और इमित्री दिमित्रीयों के और अधिक ख़ाक होने तक।

इति नमस्कारान्ते।

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