Wednesday 27 March 2019

स्वप्न यायावरी का!



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अज्ञेय ने जब कहा...अरे यायावर रहेगा याद...तो मैं सोचता हूँ कि अज्ञेय तो नहीं, पर हाँ उनका यह घोष वाक्य हर क्षण मानों मुझे ही चुनौती दे रहा है। अतीत के गौरवशाली समृद्ध क्षणों को जी उठने को मचल मचल उठता हूँ। इतिहास के उन क्षणों में पहुंचने की इच्छा बलवती होती जाती है जिनमें पहुँच एक अजन्मा उन क्षणों को इस भाँति जी ले कि और किसी क्षण की आजीवन कभी भी, कहीं भी, कोई प्रतीक्षा शेष न रहे! जानते हो नऽ...कितना कुछ है यहाँ छूने को, अनुभव करने को! भारत भूमि की यह चन्दन रज,  जिसे माथे लगा मैं उसकी पवित्रता, शीतलता का एक अँश बन, सिहर सिहर उठना चाहता हूँ। विराट उदधि से लेकर हिम किरीट हिमाद्रि तक! काश्यपी कश्मीर की घाटियों से लेकर बङ्गबन्धु की बदनाम गलियों तक! हे रक्त चन्दन भारत भू....मेरे ललाट की रेखाएँ सम्भवतः सिकुड़ सिकुड़ जाएँ किन्तु तुम्हारी गोद में मचलने हेतु यायावरी के मेरे इस स्वप्न में रञ्चमात्र अवरोध भी मेरे हेतु असहनीय है!

मित्र तब भी मुझे पागल ही कहते थे जब बचपन में मैं उन्हें अपने मनोभावों के विषय में बताता, आज भी कहते हैं। गाँव नगर में मैं जब पुराने जर्जर भवनों को देखता तो देखता ही रह जाता। गारे, मिट्टी के भूशायी होते उन भवनों में जानें ऐसा क्या होता था जो मैं उनकी और खिंचा चला जाता। हाय रे मोबाइल.....तू तब क्यों न हुआ? जब गाँव में क्रिकेट खेलते उन पुराने खण्डहरों में गेंद जाती, तो मैं एक अनजाने रोमाञ्च से भर जाता! भाँय भाँय करते खण्डहरों की उन सीली दीवारों की महक मैं आज भी उसी भाँति अनुभव करता हूँ, जितनी तब करता था। अधूरी दीवार के किनारे उगे बेर के उस पेड़ की छाँव में घण्टों बैठा मैं व मेरा मन तब भी जानें कहाँ कहाँ भटक आते थे।

मेरे क्षेत्र में स्थित निकटवर्ती चौरी चौरा हत्याकाण्ड की कहानियाँ पिताजी ने सुनायीं। कुछ बड़ा होने पर एक दिन जब वहाँ स्थित हुतात्माओं की स्मृति स्थल देखने पहुँचा तो वहाँ उस श्वेत पत्थरों से ढँके स्तम्भ को छूते हुए मेरे सरल कल्पनाशील मन ने अङ्ग्रेजी शासन के दमनकारी समय को मानों मेरे सम्मुख उकेर दिया। हजारों जन.....युवा, अधेड़, महिलाएँ, बच्चे! गगनभेदी स्वर में वन्दे मातरम् का उद्घोष करते क्रान्तिकारी जन! सिर पर नीले समुद्र से छितराए आकाश को छूने को उद्यत हाथों का तिरङ्गा झण्डा! सामने अङ्ग्रेजी सरकार की पुलिस पोस्ट....आक्रोशित भीड़ के क्रोध का दावानल.....भस्मीभूत होती पुलिस चौकी व पुलिसिया इमारत! अगले चित्र में क्रान्तिकारियों की ओर हिंसक भेड़ियों की भाँति झपटते, घोड़े पर सरपट भागते अङ्ग्रेज सिपाही...लाल फुनगी वाली टोपियाँ लगाए, हाथों में क्रान्तिदूतों के रक्त से सनी सङ्गीन लगीं तलवारें.... घोड़ों की टापों के नीचे आते निर्दोष गाँव वाले! महिलाएँ, बच्चे, वृद्ध... निस्सहाय, निरुपाय...हमारा निरीह ग्रामीण भारत!

यह घटनाक्रम लिखते हुए, जीवन रूपी कालचक्र में भटकते हुए, आज इस क्षण तक जानें कितने वर्ष और बीते। समय की राख मेरे स्वप्न पर भले ही कुछ और अधिक पड़ी...पर वही अङ्गार भीतर अभी भी धधक रहा है, जो तब उठा था! मेरी चिता तो जलेगी ही....पर पता नहीं मेरी उस चिता के साथ साथ मेरी कितनी अधूरी इच्छायें भी धू धू कर जल उठेंगी....हा यायावर...तू सुन तो रहा है ना!

मुझे सब रहेगा याद....!

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