Friday 22 March 2019

भट्ट, भट्ठा, भट्ठ, भट्ठर!

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भट्ट शब्द आता है किसी कार्य में साङ्गोपाङ्ग दक्ष व्यक्ति हेतु...जो उस कार्य में सिद्ध हों, यथा भोजनभट्ट! भट्ट अर्थात् दक्ष.....पर भट्ठा?

१- हमारे यहाँ भट्ठा कहते थे चाक को। चाक जिसे कुछ जन खड़िया भी कहते हैं। चाक, जिसे विद्यालय में श्याम पट्ट (ब्लैक बोर्ड) पर लेखन हेतु प्रयोग किया जाता था। था इस हेतु कि अब श्याम पट्ट के स्थान पर श्वेत पट्ट आ गया है व चाक का स्थान स्केच पेन ने ले लिया है। कतिपय सँस्थाओं में तो डिजिटल पढ़ाई ने उसे भी प्रचलन से बाहर कर दिया है व प्रोजेक्टर द्वारा निर्देश दिए जाते हैं।

पेन, पेन्सिल व मार्कर, स्केच के इस युग के पूर्व में प्राथमिक शालाओं में बालवृन्द पटरा (स्लेट) पर उसी चाक अर्थात भट्ठे से सूखे व गीले दोनों माध्यमों से लिखते रहे हैं, कुछ कुछ स्याही की भाँति। मैंने स्वयँ भी विद्यालयी पढ़ाई-लिखाई इसी भाँति की थी। चाक को घोल कर अथवा सूखा लिखते समय बचपन के उस स्वरूप की कल्पना करें कि बहती नाक लिए एक बच्चा चाक को अपने उसी पटरे पर पहले कूटता है। अनन्तर एक छोटी शीशी से उसे सिल बट्टे की भाँति पटरे पर ही पीसता है। तत्पश्चात उसी शीशी में भर कर आवश्यकतानुसार जल मिला मिश्रण को इस योग्य बनाता है कि उसमें नरकट की कलम से स्वेच्छित शब्द लिख सके। मिश्रण तनु या सान्द्र होने पर लेखन अपेक्षाकृत दुष्कर होता। सो यह प्रक्रिया अनभ्यस्त हाथों हेतु अत्यधिक कष्टकारी होती। मिश्रण प्रयोग हेतु इस भाँति उपक्रम थे कि डोरी (धागा) को भिगो कर पटरे के दोनों सिरों पर फैला एक सहायक से हल्के हाथों से तान कर छोड़ने को कहा जाता जिससे कि पटरे पर एक सीधी रेखा उभर जाए। रेखाओं को खींचना, मिश्रण बनाना, कूटना, पीसना एवँ सुलेख(श्रुतिलेख) लिखने की इस प्रक्रिया में हाथ-पैर, मुँह-नाक व कपड़ों की श्वेत दुर्दशा हो जाती। किन्तु इन सबसे अनभिज्ञ छात्र पूर्ण तन्मयता से यह कार्य किए जाता जिससे यह शब्द अस्तित्व में आया हुआ हो सकता है...भठा हुआ अर्थात भट्ठे से पूर्णत: पुता हुआ!

२: इस यात्रा में एक अन्य पक्ष भी जानना ही चाहिए। वह कुछ यूँ है कि गाँव गिराम में ईंट पाथने (बनाने) वाले पथेरे कहें जाते हैं। पथेरों की बनाती ईंट को जिस स्थान पर पकाया जाता है उसे भी भट्ठा ही कहा जाता है। गाँव में भट्ठा व पथेरे एक निष्क्रिय,निरुद्देश्य जीवन के पर्याय हैं। वह यूँ कि भट्ठे का श्रमिक नित्य प्रति एक सी जीवन शैली जीता है। सन्ध्या काल में मिट्टी खोद कर उसे बारीक बनाना, जल मिला उसे रात्रि पर्यन्त छोड़ देना! प्रात: उस मिट्टी से ईंटे पाथना व अनन्तर उसी भट्ठे पर बनी कच्ची शराब पी कर कहीं पड़ रहना।
आप उसे कितना भी समझा लें वह स्वयँ की इस दिनचर्या में रत्ती मात्र भी परिवर्तन नहीं करता....न जानें क्यों? उसे इस भाँति जीना सरल लगता हो...कौन जाने!

गाँव में रहने वाले मेरे इस वक्तव्य को अपेक्षाकृत सरलता से समझ सकते हैं, नागरिक जनों की तुलना में। ईँटे बनने व पकाने हेतु दो अन्य सामग्री भी लगती है, कच्चा कोयला व राबिस! राबिस कहते हैं पत्थर, मिट्टी, व राख के ऐसे मिश्रण को जिससे ईंटों की सजी हुई परतों के बीच कोयला भर आग लगाने के पूर्व सतह पर बिछाया जाता है। राबिस की एक मोटी परत सबसे ऊपरी सतह को अत्यधिक गर्म होने से बचाती है, किसी इन्सुलेटर की भाँति।

ईंट निर्माण के इस क्रम में राबिस से पुते श्रमिक के केवल चक्षु व दन्तपङ्क्ति के ही दर्शन किए जा सकते हैं। शेष शरीर...सर्वत्र भठा हुआ....पुता हुआ!

३- इन दो प्रक्रियाओं को देख सुन...उस बालक को जो अकुशल होने पर भी कार्यसिद्धि में स्वच्छता अस्वच्छता से सर्वथा निरापद हो लगा रहा एवँ उस निश्चिन्त श्रमिक को जिसे लाख समझाने व उपकृत करने पर भी जो अपनी प्रवृत्ति से अपेक्षाकृत लाभप्रद परिस्थितियों को भी ठोकर मार पुनः पुनः वहीं आचरण करता रहा....किसी शब्दविलासी नें यह उपमा दे दी हो कि....ज्जा भट्ठरे बाड़ऽ! भट्ठरे रहि गईलऽ!

इति!

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