Tuesday 12 February 2019

कुछ भी ऐवें ही!

"Success has many fathers, while failure is an orphan."

विसङ्गतियों के उस कालक्रम में ऐसे वाक्य सरस प्रतीत होते हैं जब व्यक्ति जीवन पथ में निरुपाय हो, क्षीण आत्मबोध लिए, किञ्चित् दास्यभाव ग्रहण करता हो!

किन्तु समय के साथ साथ उपलब्धियों के उदात्त गान तक, व्यक्तिगत् उच्च आत्मबोध की अवस्थाओं की सम्प्राप्ति तक, जिए गए अन्तहीन युग की सङ्घर्ष गाथाएँ जिसके मानसिक अवचेतन में सदा सर्वदा सुरक्षित रखी हों...ऐसी अवस्था में भी उसके स्वयँ के आचरण हेतु, आवश्यक तत्त्वों का आहरण, अन्यों की अपेक्षा सज्जनों का ही ग्राह्य होता है!

प्रत्येक व्यक्ति की स्वयँ की जीवन गाथा में जानें कितने आप्त वाक्य ऐसे रहे होंगे, जिन्हें सफलता के कालक्रम में यदि वह पुनः मुड़ कर देखना चाहे... तो स्वयँ पर हँसने हेतु उसे अथाह सामग्री मिले कि अरे... मैंने ऐसा किया था? मुझे तनिक भी विश्वास नहीं होता!

यह भी एक प्रकार का बोध ही तो है!

एवँ यही यथार्थ भी है, कि यदि किसी व्यक्ति के जीवन में सङ्घर्ष न रहा हो, तो वह बोध के अपेक्षाकृत उन स्तरों से अनभिज्ञ ही रहता है जिनसे कि व्यक्ति क्षण क्षण में परिवर्तित होने वाले इस समय पटल पर, अपनी नितान्त निजी उपलब्धियों की एक झाँकी मान कुछ चित्रित ही कर सके एवँ जिनका स्मरण मात्र ही उसे यह तोष देता होता हो कि वह यह कह सके, सुन सके... गा सके...!

आरोही क्या अवरोही क्या
निर्जन वन कौन, बटोही क्या?

वह ग्रन्थ अधूरा ही मानूँ
जिसमें न हलाहल पान लिखा,
जिनमें न निशा चिहुंकी रोयी
परित: केवल दिनमान लिखा।

सूखे अधरों की प्यास नहीं
जिन शब्दों में जिन छन्दों में,
जिनमें हों लिखें मधुमास अकथ
लिपटे हों भ्रमर मकरन्दों में।

जो काल कराल के दाह जले
जीवन वह पुष्प लिखा न कहीं,
जिनमें हो कथा मलयानिल की
दावानल रौद्र दिखा न कहीं।

वह जीवन क्या होता होगा,
वो 'मनुज' न क्या रोता होगा?
'श्रद्धा' के पाँव चला हो जो,
क्या 'इड़ा' तक न पहुँचा होगा!

(अर्द्ध विराम इस क्षण पर, पूर्ण की सँकल्पना इससे आगे! पूर्णता क्षरण करती है सो उचित नहीं! 🙂)

Wednesday 6 February 2019

किनारे पूछते तो हैं?

जब तुम्हारे अपने अफसानों से
भर जाए तुम्हारा मन!
और तुम बैठो
जब कभी
नीम़ अंधेरी
काली रातों में
किसी नीम के ठौर
घुटनों में सिर दिए!!

तो
तुम्हारा वह कुम्भीपाक
फिर सिर उठाएगा
तुम्हारे चारों ओर!
और तब उसकी गूंज
ढम ढम करती बजेगी
तुम्हारे कानों के परदों पर!!

जिसे हजार रातों तक
तुम अनसुनी करते आए!
जिन सिसकियों को
धता किए
तुम सुनते रहे थे
ग़ज़ल मुकरियों की
हसीन किस्सागोई
किसी हसीन सपने में गुमसुम!!

और तभी
समय के थैले से
वो हज़ार सुबहें नुमाया होंगी
जब तुम कहीं जाने को तैयार!
और जानें किसकी
हसीन कल्पनाओं में खोए तुम
सदा ही भूले
वो छालों भरी उँगलियाँ
जो गर्म तवे पर
तुम्हारी रोटियाँ सेंकतीं थीं!!

मेरा यकीन कर लो
तब अपने घुटनों से!
तुम अपना सर भी
निकाल न सकोगे!!

क्योंकि तब
उस सर पर
बोझ होगा तुम्हारे रंज का!
तुम्हारे द्वेष का
तुम्हारे दर्प का
और मेरी पीड़ा का भी!!

पर,
मेरी देह
तब भी!
महका करेगी
सात आसमान पार!!

क्योंकि
यह तो!
तुम भी जानते हो
कुसूरवार कौन!!
.....