Saturday 27 October 2018

एकदा..... तूलिका युद्धे!


(इस आलेख से सहमति-असहमति आपके विवेक पर है। आलेख कुछ स्वनामधन्यों को इङ्गित कर के लिखा गया था जो कुछ सम्पादन के पश्चात् आप तक!)

मैं....शब्द ब्रह्म के पथ का अनाम पथिक!

शब्दों में जीवन ढूँढता... शब्दों में मृत्यु...अनवरत... निरन्तर!

और अब, जबकि मैं अद्यतन करने चला हूँ....अपने शब्द पुष्पों से उस सर्वशक्तिमान 'शब्द ब्रह्म' का पुनः पुनः शृँगार!

तो मेरे अवचेतन 'नद़' में प्रवाहित हो रही शब्द सीपियों में भी हो रही है निरन्तर प्रतिस्पर्धा....एक दूसरे से पूर्व...इस पटल पर रचे जाने हेतु!

और जो एक दूसरे की कलाईयाँ उमेठे जा रही हैं निरन्तर...मेरे मस्तिष्क की अगणित, अपरिमित शक्ति से नितान्त अनभिज्ञ!

तब....इन सबके मध्य, शब्दों का ऐसा "गुञ्जलक" निर्मित होता देखता हूँ मैं, जो अकस्मात् थम जाता है मेरे अवचेतन में और मैं बस मुस्कुरा देता हूँ।

यह कुछ कुछ ऐसा है, मानो 'तूलिकाओं' के हाट में पहुँच गया हो कोई 'लियोनार्दो'!

और उस हाट की अनगिनत तूलिकाएँ गुत्थम-गुत्था हो गयी हों.. 'मोनालिसा' के सर्जक की बल खाती उङ्गलियों सङ्ग अठखेलियाँ करने के प्रयास में!

चित्रकारी करते 'लियोनार्दो' द्वारा चित्र में उभरी किसी विसङ्गति का अवसान करने को तत्पर अनगिनत तूलिकाओं का वही चिर-परिचित कर्त्तव्य बोध!

किन्तु... युद्ध सर्वथा निरास्पद !

और तब!

इस 'तूलिका-युद्ध' को प्रणाम कर, मेरा लियोनार्दो यूँ चलता चला जाता है चुपचाप, अपने गन्तव्य की ओर!

ज्यों उसे भान हो!

तूलिकाओं की यह 'प्रज्ञा'।

अहो! अन्तत: हम 'मोनालिसा' के होने का हेतु हैं!

Thursday 25 October 2018

घाव करें गम्भीर....दोहरे!




जोशु_आ के दर पे भैये, दरबदर इन्साफ है,
झूठ बोलना पाप है, नदी किनारे साँप है।

अनु_पमा नारी है, नर हैं बाकी सब रे_पादरी,
सारी दुनिया ठेंगे पर, एक ये ही लल्लनटाप है?

सि_स्टर को बि_स्तर पर लाया, कैसी प्रे_यर करता था?
मू_लक्कल को तनिक टटोलो, क्या सच में ये शफ्फाक़ है?

जोशु_आ तेरे चेलों ने, तेरा ही नाम डुबा डाला,
ये क्या तुझको ऑनर  देंगे, सिस्टम ही खल्लास है।

कपालीश्वर मलाबार है, थॉ_मसी करतूतें हैं,
भूल गए क्या जानी, आपो सब रङ्गे सियार हैं।

*****

Monday 22 October 2018

एक रात की लोकल - १

ग्रामीण क्षेत्रों से जो मित्र हैं, वो बखूबी समझते होंगे कि रात्रि में दूर दराज की यात्रा कितनी कठिन हो सकती है यदि अपने तईं कोई वाहन ना हो! उस पर समय यदि सर्दियों का हो तो बस राम ही राखें। ग्रामीण क्षेत्रों में प्रायः सायं सात-आठ बजे ही निद्रा देवी का आगमन प्रारम्भ हो जाता है, जो नौ दस बजे तक पूरे गाँव को गहरी नींद में पहुंचा दिया करती हैं। सो हाल फिलहाल की एक घटना आप सब से साझा करना चाहता हूँ जब इस भूमिका से दो चार होने का अवसर प्राप्त हुआ था।

सुबह सुबह फोन की घंटी बजी तो नींद में विघ्न पड़ा। आंखें मींचकर किनारों से स्क्रीन देखने की कोशिश ही कर रहा था कि कॉल डिस्कनेक्ट हो गयी। मन के अंदर से आवाज आयी हो न हो, फोन पिताजी का होगा! क्योंकि सुबह सुबह फोन करने की पिताजी की आदत से सारा घर परिचित है। पिताजी गाँव में रहते हैं और सुबह नित्य कर्म के बाद और नाश्ते से पूर्व उनका प्रथम कार्य हम भाई बहनों को फोन करना ही होता है। बड़े भाई साहब की आदत जहाँ सुबह जल्दी उठने की है, वहीं मेरी कोशिश रहती है कि नौ या दस भी बज जाएँ तो भी नींद स्वेच्छा से ही खुले, न कि किसी बाह्य कारक से। बहनें ससुराल में हैं तो वैसे भी अपनीअपनी सुविधानुसार मायकेवालों से बात करती हैं, लेकिन मुझे और बड़े भैया को पिताजी के फोन की आदत है। बड़े भैया जहाँ पिताजी की कॉल का जवाब तुरन्त दिया करते हैं वहीँ मैं अपेक्षाकृत थोड़ी देर में। खैर पिताजी के पास इसका भी उपाय है। पहले मुझे फोन करने के बाद बड़े भैया को फोन करते हैं ताकि जब तक मेरी कॉल वापस आए, बड़े भैया से बातचीत हो चुकी हो। इसी क्रम में आज की कॉल पर पिताजी ने सूचना दी कि खेतों में बुवाई का कार्य अब प्रारम्भ होना है, इसलिए खाद बीज की व्यवस्था कर दी जाए। मैने भी रात्रि में गाँव आने का आश्वासन दे अन्य आवश्यक कार्यक्रम निपटाने की तरफ कदम बढ़ा दिए।

मेरा कार्यक्षेत्र गांव से 70-80 किमी दूर है सो आने जाने हेतु एकमात्र साधन भारतीय रेल सुलभ और सुरक्षित जान पड़ता है। मेरे गांव का नजदीकी रेलवे स्टेशन भी 4 किमी दूर है और बस स्टैंड 8 किमी। सो शाम की ट्रेन जो आमतौर पर सात बजे तक मेरे स्टेशन पहुंचा देती है, उसी से जाना निश्चित हुआ। कारण रात्रि बेला में ग्रामीण अंचलों मे आवागमन की सर्वसुलभ इकाई ऑटो(सहज भाषा में टम्पू) देर रात मिलना दुष्प्राप्य है। अतः आवश्यक साजोसामान के साथ तीन बजे ही स्टेशन पहुंच गया। ट्रेन आने में घंटे भर की देरी की सूचना मिली तो वहीं के एक मित्र से मिलने की इच्छा से बाहर की ओर चला आया। मित्र से मिलकर लौटने में की गई कुछ मिनटों की देरी का दंड ट्रेन के चले जाने की सूचना के रूप में मिला। अगली ट्रेन का समय सात बजे और पहुंचने की संभावना आठ नौ बजे। एक प्रसिद्ध कहावत कहूँ तो जे के खाति अलगा भईनी उहे परल बखरा! मने जिस चीज से बचने की कोशिश की वही हिस्से में आए। देर रात्रि में घरवालों को परेशानियों में न डालने की इच्छा पर तो पानी फिरा ही, स्टेशन से घर तक की यात्रा पैदल करने की इच्छा से ही मन में सिहरन हो गई। खैर ट्रेन आने और मेरे स्टेशन तक पहुंचने को एक लाइन में समेटते हुए मैं अपने गंतव्य स्टेशन तक पहुंच गया। ट्रेन में सहयात्री के नाम पर मिले एक बुजुर्ग, जिनका घर रेलवे स्टेशन के पास ही है। साथ ही मुझे मिला कोई बेहद खास, जिसके यहाँ इस वक्त होने की दूर दूर तक कोई सम्भावना नहीं थी, और जिसका निवास स्थान मेरे गाँव से आधा मील आगे का था।

(जारी)

जो तुम तोड़ो पिया...!

सङ्गीत की देवी ने, १९५५ ईस्वी में, चित्रपट झनक झनक पायल बाजे में इस कृष्णगीत को जब अपने सुरों में साधा होगा, तब कदाचित् कृष्णसखी मीरा का कहीं मौन आशीष भी रहा होगा, सुर साम्राज्ञी के स्वराभिनन्दन हेतु।

और सम्भवत: ठाकुर की मन्द-स्मित् मुस्कान तब भी थिरक रही होगी, वंशी के बोझ से किञ्चित पथराए ललछौहें अधरों पर।

आह...ईर्ष्या तू न गयी मेरे मन से।

मीरा तो कृष्णसखी हो किंवदन्ती बन गयी, किन्तु सुर-साम्राज्ञी की स्वर लहरियों में ढूँढता रहा हूँ मैं, वह विशुद्ध प्रेम।

जिससे आच्छादित होकर तिरोहित हो गया अधुना मनुष्यों की दृष्टि से, वह मीरा का गिरिधर गोपाल।

हा दैव!

ऐसा जनरञ्जन तो मानों व्यसन है उसका! न होता तो क्यों कहता वह?

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाऽचन!

अरे वो नटवर है न, तो हम जैसों को नचाना बहुत भाता है उसे।

सुना है, वह जब वंशी बजाता, तो कदम्ब की डालियाँ तक नृत्य कर उठतीं। सुर-असुर, चर-अचर, यक्ष-गन्धर्व सब निश्चेष्ट हो जाते। कुछ ऐसे अपने स्वरों से सम्मोहित करता वह।

यही नहीं...केवल ब्रज गोपियों तक की कौन कहे, अपनी माँ को भी तो कितना नचाया उसने।

किन्तु तब भी, सबके मन-मन्दिर का एकमात्र अधिपति रहा वह कन्हैया!

छलिया, निर्मोही....राधा भी यूँ ही तो न कहती होगी उसे!

अब अधिक क्या कहूँ? भारत नें देखें हैं उसके जानें कितने रूप। हर रूप में कृष्ण, हर कृष्ण का रूप।

उसकी गाथा कहते सूर ने हजारों पद लिख डाले किन्तु साथ साथ यह भी दुहराते रहे...।

अबिगत गति कछु कहत न आवै।

मैं सोचता हूँ, विशुद्ध प्रेम है वह। कुछ ऐसा कि उसका स्मरण मात्र रोमाञ्चित कर जाता है।

ध्यातव्य हो कि कहाँ आकण्ठ भक्ति मूर्ति कृष्ण-दासी मीरा का नटवर-नागर और राधा व गोपिकाओं के सङ्ग, युगों युगों से अनवरत् चलता उसका प्रेम सम्बन्धी  महा-रास और कहाँ आततायी कौरव सेना के सम्मुख अमित पराक्रमी वासुदेव कृष्ण। सोलह कलाओं का एकमात्र अधिपति।

कृष्ण के विराट व्यक्तित्व को या महा-रास के सौन्दर्य को मैं वर्णित कर सकूँ, ऐसा बोध कम से कम मुझ अज्ञानी में तो कदापि नहीं।

वह तो केवल उन स्थित-प्रज्ञों की मेधा में है, जिनका मैं हो जाना चाहता हूँ अनुचर।

और आस्वादन कर लेना चाहता हूँ, तपती दोपहर में कदम्ब वृक्ष की छाँह तले, वंशीधर की कृपादृष्टि के उस शीतल स्नान का जिसकी एकमात्र अर्हता है, उसका अनन्य प्रेम।

मैं तो बस भींजना चाहता हूँ, कृष्णभक्ति की उन रिमझिम फुहारों में... जिनमें भींगी मथुरा-वृंदावन की असंख्य विभूतियाँ आद्योपान्त, रस से सराबोर!

और थी जिसकी प्रत्येक बूँद, मानों कई कई अमृत कलश।

उसकी चरण-रज में सन मैं भी बस श्याम रङ्ग हो जाता। उसे निविड़ अंधेरी रातों में उच्च स्वर में पुकारता, यदा कदा जन्माष्टमी मनाने वालों की भीड़ में करताल बजाते हुए अनायास रो पड़ता। चैतन्य महाप्रभु की भाँति नृत्य करता और गा उठता कृष्ण-दासी मीरा के उन्हीं शब्दों को जिनमें कन्हैया के प्रति अनुराग और  ज्ञानियों को वैराग्य हो जाता है।

अरे...तुम चुप क्यों हो? सुर-साम्राज्ञी.... पुनः गाओ न!

"जो तुम तोड़ो पिया, मैं नाहीं तोडूँ रे!"

Sunday 21 October 2018

जय बजरङ्गी!


श्री रामचन्द्र के दूता, हनुमन्ता आञ्जनेया...!
सनातन धर्म भावना प्रधान है।
कहीं सुना था....भावना में यदि भाव ना हो, तो "भावना" व्यर्थ है।
कहने वालों ने तो संसार को भी भाव-जगत कहा है।
और परमात्मा को तत्त्व!
किसी भी भाव का सृजन, तत्त्व की अनुपस्थिति में नहीं होता।
बालक का जन्म होने पर माँ के स्तनों में दुग्ध स्वयँ प्रवाहित होने लगता है।
किसी नवविवाहिता के पति की असमय मृत्यु हो जाए तो उसका हृदय तत्क्षण प्रस्तर तुल्य हो जाता है।
यदि यह सत्य है, तो इस भावना-प्रधान जगत में मेरे "आञ्जनेय" से श्रेष्ठ कौन?
"हनुमन्ता" के मित्र भाव, पुत्र भाव, गुरु भाव, दास्य भाव  की कोई तुलना है?
"तुम मम प्रिय भरतहि सम भाई!" स्वयँ भगवान की उक्ति उनके हेतु इस भाव में कि... "हे आञ्जनेय! तुम मेरे हेतु भाई भरत के समान हो!"
किष्किन्धाकाण्ड में शेषावतार "लक्ष्मण" के सम्मुख यह स्वीकारोक्ति कि.......सुनु कपि जनि मानहु जिय ऊना, तै मम प्रिय लछिमन ते दूना!
अर्थात्: हे कपिश्रेष्ठ! तनिक भी क्षोभ न करें, मुझे आप भाई लक्ष्मण की अपेक्षा दूने प्रिय हैं।
"हनुमानजी" देवता हैं या नहीं? ऐसा संशय बहुधा प्रकट किया जाता है।
तो भन्ते!
हनुमानजी देवता हों या नहीं ये आप सोचो।
हम तो बस यह जानते हैं कि हनुमानजी महाराज ने स्वयँ कहा विभीषण से कि मेरे प्रभु श्रीराम का क्या वर्णन करूं मैं? आप तो बस यूँ समझिएगा कि.....!
अस मैं अधम सखा सुनु, मोहूँ पर रघुबीर।
कीन्हीं कृपा सुमिरि गुन, भरे बिलोचन नीर।।
उन हनुमानजी महाराज के उसी भाव प्रधान रूप का ध्यान करते हुए मैं स्मरण करता हूँ।
"अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं
दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम्।
सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं
रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि।।"
# हनु #आञ्जनेय #मानस

Saturday 20 October 2018

विवाह के कुतर्की

हिन्दू विवाह सँस्थानिक वेश्यावृत्ति है।

आधुनिक (स्वघोषित) विश्व मानव के शब्दों में...!

पति के पास भेजे जाते समय एक पुत्री क्या कहे अपनी माँ से? माँ... क्या यह तुम्हीं हो जो मुझे चारित्रिक अनुशीलन का पाठ पढ़ाते नहीं थकती थी? अब बोध हुआ, सम्भवत: हिन्दू कन्याएँ निज विवाह में यही सोच पछाड़े खाती हों कि हाय.....मेरी माँ व मेरा समाज आज स्वयँ धकेले जाता है मुझे, शीलभङ्ग ( विश्व मानव के शब्दों में वेश्यावृत्ति) कराने हेतु एक बलात्कारी के हाथ!

हा धरित्री! फट क्यों नहीं जाती तेरी छाती इस अन्याय से!

विश्व मानव आगे कहते हैं... विवाह से मैथुन हटा दिया जाए तो देखें कितने लोग हैं जो विवाह - एक पवित्र अवधारणा को ढोने का साहस करेंगे?

यही नहीं और भी बहुत से कुतर्क, स्वयँ के कथन की प्रमाणिकता के सापेक्ष!

अस्तु यह छोटा सा उत्तर तो लेते जाओ विश्व मानव! अधिक कहने की इच्छा नहीं...क्योंकि हम भी तुम्हें इस योग्य नहीं समझते कि तुम्हें तुम्हारे प्रश्नों के उत्तर दिए जाएँ। वो क्या है न... सनातन कहता है हमें...मूर्खाणां किम्  उपदेशम्?

सो यह उद्योग भी मात्र इस हेतु है कि सभ्यताओं नें तुम्हें चुना है, इस विजयादशमी पर उपसँहार हेतु।

तुम्हें अनुभव न हो कदाचित्, किसी श्रेष्ठ से पूछना...
रजोनिवृति पश्चात् विवाह से मैथुन अनुमानतः समाप्ति की ओर अग्रसरित होता है और पूर्णतया अनुपस्थित होता है, जीवन के उन अन्तिम क्षणों में, जहाँ एक पति और पत्नी अपने दाम्पत्य के उन टिमटिमाते तारों को देख रहे होते हैं उस विशाल और अपरिमित नील गगन में आकाशदीप बनने को उद्यत हो, अवश्यम्भावी मृत्यु का आलिङ्गन करने को बाहों में बाहें डाले, मैथुन की परिकल्पना से कोसों दूर।
और यह उन्हीं मन्त्रों और लोक का ही प्रताप होता है जिन्हें तुम व्यर्थ कहते नहीं थके और आश्चर्य यह कि बिना मैथुन जीवन व्यतीत करते वह अनपढ़, अज्ञानी, मूढ़मति पति पत्नी तब भी एक दूसरे का त्याग नहीं करते। जो कि उन्हें बहुत पहले कर देना चाहिए न?

तुम कहते हो हिन्दू विवाह में प्रेम नहीं होता, किन्तु वहीं कुटिलता के मारे तुम और तुम्हारी स्वघोषित तीक्ष्ण मेधा स्पष्टरूपेण प्रेम की व्याख्या करने में आश्चर्यजनक रूप से शान्त होती है, हो भी क्यों न! प्रेम को यदि तुम जैसे स्वघोषित विश्वमानव परिभाषित करने लगें कि लो देखो न प्रेम की व्याख्या...तो क्या पाथेय हो सभ्यताओं के उस युग गान का जिसकी अनुगूँज से परिभाषित है प्रकृति का कण-कण और क्षण क्षण!

हे प्रबुद्ध... ये शब्द तुम्हें भी तो पहचानते हैं?

अब प्रेम सम्बन्धी तुम्हारी व्याख्या के लिए क्या मैं यूँ कहूँ? हे सर्वशक्तिमान अत्याधुनिक विश्व मानव! इस निकृष्ट युग की नीरव निशा में हम हिन्दू सभ्यताएँ साङ्गोपाङ्ग अज्ञानता रूपी अन्धकार में आकण्ठ डूबी हुई हैं। अत: हे सभ्यताओं के उद्धारक!
कृपा कर अपनी लेखनी से हमें उदयाचल की सूर्य रश्मियों सी अनन्य शब्द सुधा का रसपान कराएँ! हे अज्ञातकुलशील! यह मरण को उद्यत निकृष्ट सभ्यताएँ आप खञ्जन नयन के भृकुटि विलास से उपकृत होने की आकाङ्क्षा रखती हैं। दया करो...हे लेखेन्द्र!

या अब सीधे सपाट शब्दों में कहें... सुनो बालक!
तुम्हें बलात्कार या अन्य वह सारे शब्द जिनकी परिभाषा और परिस्थितियों पर बिना थके तुम कागज़ काले करते जा रहे, तुम्हें और अधिक सम्यक् अध्ययन की आवश्यकता है। सनातन की अवहेलना तज क्या तुम कोई एक उदाहरण दोगे जहाँ बलात्कार करवाने हेतु कोई कन्या सोलह शृंगार कर आप अपने बलात्कारी हेतु दूध का गिलास लेकर जाए और मृत्यु पर्यन्त उसी बलात्कारी के साथ रहे?

विश्व मानव...सनद रहे...पश्चिम की पुस्तकों से पूरब का पता पूछोगे तो यूँ ही रगड़े जाओगे।

सो हे विश्व मानव! ईश्वर तुम्हें सद्बुद्धि दे! शब्दों का यह खेल सब समझते हैं लल्ला! वे बस तुम्हें उत्तर देने योग्य नहीं समझते। तुम पुनः कर लो अट्टहास और व्याख्याएं!

सनातन तब भी यूँ ही युग गान करता रहेगा। लाखों करोड़ों काफ्काओं, दोस्तेव्येस्की और इमित्री दिमित्रीयों के और अधिक ख़ाक होने तक।

इति नमस्कारान्ते।

Tuesday 9 October 2018

चिरई तेरो पाँख

ये
पाँख!
चिरईया
मुझको दे!!

कि उड़ जाऊँ
मैं नगर नगर!
बन बन घूमूँ
चहकूँ गाऊँ!!

मैं उत्तर जाऊँ
उस हिम किरीट तक!
दक्खिन में
सह्याद्रि चूम लूँ!!

प्राची में सूरज,
को मिल लूँ
और प्रतीचि गाऊँ
मैं नाम पिया का!!

चोंच लगा लूँ
गङ्गा का जल!
पावन करूँ
तनिक अंत:स्तल!!

ये पाँख,
ओ चिरईया....मुझको दे!!