(इस आलेख से सहमति-असहमति आपके विवेक पर है। आलेख कुछ स्वनामधन्यों को इङ्गित कर के लिखा गया था जो कुछ सम्पादन के पश्चात् आप तक!)
मैं....शब्द ब्रह्म के पथ का अनाम पथिक!
शब्दों में जीवन ढूँढता... शब्दों में मृत्यु...अनवरत... निरन्तर!
और अब, जबकि मैं अद्यतन करने चला हूँ....अपने शब्द पुष्पों से उस सर्वशक्तिमान 'शब्द ब्रह्म' का पुनः पुनः शृँगार!
तो मेरे अवचेतन 'नद़' में प्रवाहित हो रही शब्द सीपियों में भी हो रही है निरन्तर प्रतिस्पर्धा....एक दूसरे से पूर्व...इस पटल पर रचे जाने हेतु!
और जो एक दूसरे की कलाईयाँ उमेठे जा रही हैं निरन्तर...मेरे मस्तिष्क की अगणित, अपरिमित शक्ति से नितान्त अनभिज्ञ!
तब....इन सबके मध्य, शब्दों का ऐसा "गुञ्जलक" निर्मित होता देखता हूँ मैं, जो अकस्मात् थम जाता है मेरे अवचेतन में और मैं बस मुस्कुरा देता हूँ।
यह कुछ कुछ ऐसा है, मानो 'तूलिकाओं' के हाट में पहुँच गया हो कोई 'लियोनार्दो'!
और उस हाट की अनगिनत तूलिकाएँ गुत्थम-गुत्था हो गयी हों.. 'मोनालिसा' के सर्जक की बल खाती उङ्गलियों सङ्ग अठखेलियाँ करने के प्रयास में!
चित्रकारी करते 'लियोनार्दो' द्वारा चित्र में उभरी किसी विसङ्गति का अवसान करने को तत्पर अनगिनत तूलिकाओं का वही चिर-परिचित कर्त्तव्य बोध!
किन्तु... युद्ध सर्वथा निरास्पद !
और तब!
इस 'तूलिका-युद्ध' को प्रणाम कर, मेरा लियोनार्दो यूँ चलता चला जाता है चुपचाप, अपने गन्तव्य की ओर!
ज्यों उसे भान हो!
तूलिकाओं की यह 'प्रज्ञा'।
अहो! अन्तत: हम 'मोनालिसा' के होने का हेतु हैं!