Thursday 31 May 2018

मुल्लाजी

*मुल्लाजी*

वो बड़ी दूर से चल के आए थे। पहले बस पकड़ी फिर ट्रेन और आखिर में ई रिक्शा। मेहनत तो जी-तोड़ की। गोंडा के रहने वाले को गोरखपुर में भला माइक,बैटरी और भोंपू कौन देता? वो तो शुकर हो माह-ए-रमजान का, जो अल्लाह का फ़ज़ल हम मोमिनों को कई गुना अजीम हो कर मिलता है। आम दिनों में यही अरेंजमेंट करने में पसीना न निकल जाए तो कहना। खैर ये सबाब का काम है और अल्लाह सब देखता है।

ई-रिक्शे वाले ने भोंपू बाँधा। ५०० से कम पर तैयार न होता था।मुल्लाजी ने किसी तरह सबाब के काम के मानी समझाते  ४०० रुपये पर उसे तैयार किया। रिक्शे वाले ने बैटरी टिकाकर माइक सेट किया और मुल्ला जी ने बिस्मिल्लाह पढ़ा। झक्क सफेद कुर्ता और घुटनों से थोड़ा सा नीचे तक जाता साफ शफ्फाक चूड़ीदार पाजामा। अल्लाह! सिर की नमाज़ी टोपी के नीचे माथे पर सजदे का वो पाक निशान। सदके जाएं ईमान वालों की इस मेंहदी लगी सुर्ख दाढ़ी और पान की लाली लिए सुर्ख होंठों के! लिल्लाह! क़यामत में यह गवाही होगी हमारे ईमान की!

सामान सेट होने से मसला अब कुछ कुछ आसान होता सा लगा। मुल्लाजी ने कलमा पढ़ा और माइक सम्भाला। रसूलल्लाह का वास्ता देके पहला जुमला जो तारी किया तो मुहल्ले में पाकदामनी बहार आबेजा हुई। करम खुदाया, हजरात.... रमज़ान के मुकद्दस महीने का करम मैं ख़ाकसार क्या बयां करूं? ये तो बस आजमाईश है अल्लाह की ओर से उसके नेक बन्दों को, कि किस तरह रसूलल्लाह के अलहदा आशिक अपने अल्लाह की खिदमत और इबादत किया करते हैं। हजरात... रमजान की एक नेकी और आम दिनों की बनिस्बत सत्तर नेकियाँ यह माह-ए-मुकद्दस नजर करता है हर मुसलमान को। अल्लाह....तेरा करम!

अब तक मुहल्ला अपने अपने घरों से बाहर निकल जो जितना ज्यादा वो उतना अजीम होने के लिए गुत्थमगुत्था होने लगा था। औरतें, बूढ़े, बच्चे सब सबाब की हिस्सेदारी पेश करने में एक दूसरे को पीछे छोड़ देना चाहते थे। मुल्लाजी अल्लाह का फ़ज़ल मानते दुगुने जोश से माइक पर शुकराना पढ़ने लगे। मोमिनों, ये नाचीज़ अपने लिए नहीं माँगता। अल्लाह के करम से सब कुछ है मेरे पास। माँगता हूँ रसूलल्लाह की राह में, मदरसे के उन छोटे-छोटे बच्चों के लिए जो निहायत ही गरीब और जरूरतमंद हैं। उनकी रोटी और मदरसे की छत के वास्ते। नमाजियों की नमाज के वास्ते। गिट्टी, बालू, सीमेंट के वास्ते, ताकि उन यतीमों के तालीमी मदरसे और नमाज का इन्तिजाम हो सके। ये हमारे मदरसे का अकाउंट नम्बर है और ये मोबाइल नम्बर। पाँच हजार, दस हजार, बीस हजार, पच्चीस हजार जो चाहो, मदरसे के अकाउंट में जमा करा सबाब के हकदार बनो। अल्लाह सब जानता है! या मेरे मौला....हम सबको गरीबों यतीमों की मदद करने की तौफीक अता फरमा।

तब तक वहाँ किसी कम्बख्त को शैतान नें बहका दिया। शैतानी गिरफ्त में आबेजा उस बदबख्त नें मोबाईल नम्बर मिला कर जो मदरसे की तफसील जाननी चाही तो स्क्रीन पर मदरसे की जगह एक हिन्दू नाम नुमायां होने लगा। उसने मुल्लाजी से लगभग उलझते हुए कहा कि ये किसी हिन्दू का नाम क्यों है मोबाईल नम्बर पर? मुल्लाजी को कुछ समझ नहीं आया!
अल्लाह ये क्या हुआ? नम्बर तो मदरसे का ही है फिर ऐसा क्यों? वो कुछ जवाब न दे सके, ना जाने क्यूँ?
तब कम्बख्त नें अपने चन्दे के ५१ रुपये मुल्लाजी की जेब से निकलवाए और गालियां देता जाने लगा। अल्लाह का अज़ाब नाजिल हो उस शैतान पर। मुट्ठियाँ भींचते मुल्लाजी ने रिक्शेवाले को आगे बढ़ने का इशारा किया और माइक बंद कर ना मालूम क्या बुदबुदाने लगे।

शैतान इन्सानों से जो न कराए....खुदा खैर करे!